क्या आपको पता है भारत के किस राज्य में तीसरा सबसे अधिक विश्व धरोहर स्थल हैं।
भारत में 04 राज्यों में 3-3 विश्व विरासत स्थल है। जिनमें मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, असम और कर्नाटक राज्य जहाँ तीन-तीन और तीसरा सबसे अधिक विश्व धरोहर (विरासत) स्थल हैं।
आईये जानते हैं मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, असम और कर्नाटक में कौन-कौन से विश्व विरासत स्थल हैं, विस्तार से
मघ्य प्रदेश के सभी विश्व विरासत (धरोहर) स्थल UNESCO World Heritage Sites in Madhya Pradesh
खजुराहो स्मारक समूह वर्ष 1986 (सांस्कृतिक स्थल)
साँची में बौद्ध स्मारक वर्ष 1989 (सांस्कृतिक स्थल)
भीमबेटका के शैलाश्रय वर्ष 2003 (सांस्कृतिक स्थल)
खजुराहो स्मारक समूह
खजुराहो स्मारक समूह मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले झांसी से 175 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
यह मंदिर नागर शैली की वास्तुकला के लिए प्रसिद्ध हैं, और उनकी दीवारों पर जटिल मूर्तियां हैं, जिनमें 10 प्रतिशत कामुक मूर्तियां शामिल हैं।
यह हिंदू और जैन मंदिरों का समूह है, जो चंदेल राजवंश द्वारा 950-1050 ई. के बीच बनाया गया था।
12वीं शताब्दी तक मूल रूप से 85 मंदिर थे, लेकिन आज लगभग 25 बचे हैं, जो 6 वर्ग किलोमीटर में तीन समूहों (पश्चिमी, पूर्वी, दक्षिणी) में बंटे हैं। खजुराहो मंदिर समूह को एक साथ बनाया गया था।
खजुराहो स्मारक समूह को 1986 में यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल घोषित किया गया था।
यह चंदेल वंश की कला और संस्कृति का प्रतीक है, और हिंदू-जैन सहिष्णुता का उदाहरण है।
इन मंदिरों का नाम खजुराहो प्राचीन संस्कृत शब्द खर्जूर (खजूर) और वाहक (धारक) से लिया गया है, जिसका अर्थ है खजूर के पेड़ों का धारक।
यह स्थल चंदेल वंश की राजधानी में से एक था।
खजुराहो के मंदिर नागर शैली की वास्तुकला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं, जो रेत के पत्थर से बने हैं। प्रत्येक मंदिर एक ऊंचे चबूतरे पर बनाया गया है, जिस पर एक शिखर है। नागर शैली की विशेषता ऊँचे, वक्राकार टावर (शिखर) और पत्थर की ऊँचे चबूतरे पर बने मंदिर हैं, जिनमें सीढ़ियाँ ऊपर की ओर जाती हैं।
मंदिरों का लेआउट अक्षीय रूप से संरेखित है, जिसमें सजावटी प्रवेश पोर्च, मुख्य हॉल, वेस्टिबुल, और गर्भगृह शामिल हैं। बड़े मंदिरों में पार्श्व ट्रान्सेप्ट्स, प्रोजेक्टिंग विंडो, परिक्रमा पथ, और चार कोनों पर सहायक मंदिर भी हैं।
मंदिरों की दीवारें मूर्तिकला से भरी हुई हैं, जिसमें मानव और गैर-मानव रूपों की नक्काशी शामिल है। ये मूर्तियां पवित्र और धर्मनिरपेक्ष दोनों थीम्स को दर्शाती हैं, जैसे पूजा, देवी-देवताओं, प्रेमी जोड़ों, घरेलू दृश्य, शिक्षक, शिष्य, नर्तक, संगीतकार, और प्रेमी जोड़े। विशेष रूप से, कंदारिया महादेव मंदिर अपनी जटिल और विस्तृत मूर्तिकला के लिए प्रसिद्ध है, जो भारतीय कला का एक श्रेष्ठ नमूना है।
मंदिर समूह तीन समूहों में बंटे हैं –
पश्चिमी समूह – इसमें लक्ष्मण, मातंगेश्वर, वराह, कंदारिया महादेव, चित्रगुप्त, पार्वती, विश्वनाथ, और नंदी मंदिर शामिल हैं। इस समूह में लगभग 870 मूर्तियां हैं, और यह सबसे प्रसिद्ध है।
पूर्वी समूह – इसमें वामन, जवारी, पार्श्वनाथ, आदिनाथ, संतिनाथ, घंटाई, और ब्रह्मा मंदिर शामिल हैं, जिसमें कई जैन मंदिर भी हैं।
दक्षिण समूह – इसमें दुलादेव और चतुर्भुज मंदिर जैसे कुछ मंदिर हैं।
प्रमुख मंदिर
कंदरिया महादेव – मंदिर यह सबसे बड़ा और सबसे शानदार मंदिर है, जो भगवान शिव को समर्पित है। इसमें 900 से अधिक मूर्तियां हैं, और इसका शिखर 31 मीटर ऊंचा है।
लक्ष्मण मंदिर – भगवान विष्णु को समर्पित यह मंदिर अपनी सुंदर नक्काशी और संतुलित संरचना के लिए प्रसिद्ध है।
पार्श्वनाथ मंदिर – यह जैन तीर्थंकर पार्श्वनाथ को समर्पित है और जैन कला का उत्कृष्ट उदाहरण है।
चतुर्भुज मंदिर – यह मंदिर अपनी एक विशाल विष्णु मूर्ति के लिए जाना जाता है।
खुजराहो के मंदिरों की मूर्तियां निम्न मुख्य श्रेणियों में विभाजित की जा सकती हैं –
धार्मिक मूर्तियां – शिव, विष्णु, गणेश, और अन्य देवताओं की मूर्तियां।
अप्सराएं और नर्तकियां – ये सुंदर मूर्तियां नृत्य, श्रृंगार और जीवन के सौंदर्य को दर्शाती हैं।
कामुक मूर्तियां – ये मिथुन मूर्तियां तंत्र दर्शन और मानव जीवन के विभिन्न पहलुओं को व्यक्त करती हैं। इन्हें अक्सर गलत समझा जाता है, लेकिन ये जीवन के प्राकृतिक चक्र और आध्यात्मिक उत्थान का प्रतीक हैं। कामुक मूर्तियां हिंदु दर्शन में काम (इच्छा) का प्रतीक हैं, जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के चार जीवन लक्ष्यों में से एक है। ये मूर्तियां मानव जीवन की खुशियों और सुंदरता के लिए हैं, न कि अश्लीलता को बढ़ावा देने के लिए। ऐसी मान्यता है कि ये मूर्तियाँ बाहरी दीवारों पर रखी गई ताकि आंतरिक गर्भगृह को शुद्ध और दिव्य रखा जा सके।
खजुराहो केवल धार्मिक स्थल नहीं है, बल्कि यह उस समय के समाज, कला और जीवन दर्शन का भी प्रतिबिंब है। कामुक (मिथुन) मूर्तियां, जो कुल मूर्तियों का केवल 10 प्रतिशत हिस्सा हैं, अक्सर सबसे अधिक ध्यान आकर्षित करती हैं, लेकिन वे जीवन के संतुलन और आध्यात्मिकता के गहरे अर्थ को दर्शाती हैं।
यह स्थल आज भी पर्यटकों, इतिहासकारों और पुरातत्वविदों के लिए आकर्षण का केंद्र है।
कामुक मूर्तियां हैं, जो प्रेम और कामुकता को दर्शाती हैं, लेकिन बाकी मूर्तियां धार्मिक और सामाजिक दृश्यों को दिखाती हैं, जैसे देवी-देवताओं की पूजा, संगीत, नृत्य, और दैनिक जीवन। कंदारिया महादेव मंदिर की मूर्तियां विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं, जो भारतीय कला के महानतम नमूनों में से एक हैं। ये मूर्तियां वास्तुकला के साथ पूरी तरह से एकीकृत हैं और चंदेल संस्कृति की समृद्धि को दर्शाती हैं।
पशु और पौराणिक प्राणी शेर, हाथी, और मकर जैसे प्राणियों की मूर्तियां भी प्रचुर मात्रा में हैं।
दक्षिणी समूह इसमें दुलादेव और चतुर्भुज मंदिर शामिल हैं। दुलादेव मंदिर, जिसे कुंवर मठ के नाम से भी जाना जाता है, 1100-1150 ई. के बीच बनाया गया था और इसमें उड़ते हुए देवताओं और नक्काशीदार महिला आकृतियों की विशेषता है।
खजुराहो की मूर्तियां अपनी जटिलता और प्रतीकात्मकता के लिए जानी जाती हैं।
खजुराहो मंदिर हिंदू और जैन धर्म दोनों के लिए महत्वपूर्ण हैं, जो धार्मिक सहिष्णुता का एक उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। ये मंदिर चंदेल वंश की सत्ता और उनकी कला के प्रति समर्पण को दर्शाते हैं।
इसके अलावा, मंदिरों का निर्माण दो धर्मों, हिंदू और जैन, के लिए एक साथ होना, उस समय की धार्मिक सहिष्णुता का एक दुर्लभ उदाहरण है।
खजुराहो स्मारक समूह न केवल भारतीय वास्तुकला और मूर्तिकला का एक अद्भुत नमूना है, बल्कि चंदेल वंश की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत का भी प्रतीक है।
खजुराहो स्मारक समूह भारत का 13वां विश्व धरोहर स्थल है जिसे यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल के रूप में निम्नलिखित मानदंडों के तहत मान्यता दी गई है –
(i) खजुराहो का परिसर एक अद्वितीय कलात्मक सृजन, जिसमें मौलिक वास्तुकला और उच्च-गुणवत्ता वाली मूर्तिकला सजावट के कारण अद्वितीय है।
(iii) खजुराहो के मंदिर चंदेल संस्कृति का असाधारण प्रमाण, जो 13वीं शताब्दी ई. के शुरूआत में दिल्ली सल्तनत की स्थापना से पहले मध्य भारत की अवधि को दर्शाता है।
खजुराहो स्मारक समूह को 1986 में यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल घोषित किया गया। इसे मानवता की सांस्कृतिक विरासत के रूप में मान्यता दी गई क्योंकि यह मध्यकालीन भारत की वास्तुकला, कला और धार्मिक सहिष्णुता का अनूठा उदाहरण है।

सांची में बौद्ध स्मारक
सांची का बौद्ध स्तूप मध्य प्रदेश के रायसेन जिले में, भोपाल से लगभग 46 किलोमीटर, रायसेन से 23 किलोमीटर और विदिशा से 10 किलोमीटर की दूरी पर एक पहाड़ी की चोटी पर स्थित है। यह स्थल समुद्र तल से लगभग 300 फीट की ऊँचाई पर है।
भारत में स्थित एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक रूप से महत्वपूर्ण स्थल है, जो यूनेस्को विश्व धरोहर सूची में शामिल है। यह बौद्ध कला, वास्तुकला और धर्म का एक उत्कृष्ट उदाहरण है, जिसका निर्माण मौर्य सम्राट अशोक ने तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में शुरू किया था। यह स्थल अपने प्राचीन स्तूपों, मठों, मंदिरों और कलाकृतियों के लिए प्रसिद्ध है, जो बौद्ध इतिहास और भारतीय संस्कृति की गहरी झलक प्रदान करते हैं।
सांची को 1989 में यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल के रूप में मान्यता मिली।
सांची का इतिहास मौर्य सम्राट अशोक से शुरू होता है, जिन्होंने कलिंग युद्ध (261 ईसा पूर्व) के बाद बौद्ध धर्म अपनाया और बौद्ध धर्म के प्रसार के लिए कई स्तूपों का निर्माण करवाया। सांची का महास्तूप (स्तूप संख्या 1) अशोक द्वारा बनवाया गया मूल ढांचा था, जो शुरू में ईंटों से निर्मित था। बाद में शुंग (दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व), सातवाहन (पहली शताब्दी ईस्वी), और गुप्त काल (पांचवीं शताब्दी ईस्वी) में इसे विस्तारित और सजाया गया।
शुंग काल पत्थर की परत, रेलिंग और चार तोरण द्वार जोड़े गए।
सातवाहन काल तोरणों पर जटिल नक्काशी की गई, जिसमें बुद्ध के जीवन और जातक कथाओं को दर्शाया गया।
गुप्त काल चार मंदिरों का निर्माण हुआ, जो मंदिर वास्तुकला के शुरुआती उदाहरण हैं।
यह स्थल 12वीं शताब्दी तक बौद्ध धर्म का प्रमुख केंद्र रहा, लेकिन इसके बाद यह परित्यक्त हो गया। 1818 में ब्रिटिश जनरल हेनरी टेलर ने इसे फिर से खोजा, और 1912-1919 में जॉन मार्शल के नेतृत्व में पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग (ASI) ने इसका जीर्णाेद्धार किया।
प्रमुख संरचनाएँ
सांची परिसर में कई स्तूप, मठ, मंदिर और अन्य संरचनाएँ हैं, जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं –
महास्तूप (स्तूप संख्या 1)
निर्माण अशोक द्वारा शुरू, बाद में विस्तार।
यह सबसे बड़ा और प्रसिद्ध स्तूप है, जिसका व्यास 36.6 मीटर और ऊँचाई 16.5 मीटर है।
चार तोरण (द्वार) हैं उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम कृजिन पर बुद्ध के जीवन और जातक कथाओं की नक्काशी है।
यहाँ महात्मा बुद्ध के जीवन और जातक कथाओं की नक्काशी बुद्ध को मानव रूप में नहीं, बल्कि अनिकोनिक कला प्रतीकों (पदचिह्न, बोधि वृक्ष, स्तूप) के माध्यम से दर्शाया गया है। यह स्तूप बुद्ध की पवित्र अवशेषों का प्रतीक है।
स्तूप संख्या 2
दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व का यह स्तूप प्रारंभिक बौद्ध वास्तुकला को दर्शाता है।
विशेषताएँ छोटा लेकिन प्राचीन, रेलिंग सजावटी नक्काशी है।
स्तूप संख्या 3
निर्माण दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व।
महात्मा बुद्ध के प्रमुख शिष्य शारिपुत्र और मौद्गल्यायन की अस्थियाँ यहाँ संरक्षित हैं, जो थेरवाद बौद्धों के लिए तीर्थस्थल है।
अशोक स्तंभ
दक्षिणी तोरण के पास स्थित, इसका शीर्ष चार शेरों वाला है, जो भारत का राष्ट्रीय चिह्न है और अब सांची संग्रहालय में रखा गया है।
गुप्त मंदिर
निर्माण पांचवीं शताब्दी ईस्वी।
महत्व मंदिर वास्तुकला का प्रारंभिक उदाहरण।
कलात्मक और वास्तुशिल्प विशेषताएँ
सांची की सबसे बड़ी विशेषता इसकी अनिकोनिक कला है, जिसमें बुद्ध को मानव रूप में नहीं, बल्कि प्रतीकों (जैसे बोधि वृक्ष, स्तूप, चक्र) के माध्यम से दर्शाया गया है।
यह कला मौर्य, शुंग और सातवाहन काल की मूर्तिकला परंपराओं का मिश्रण है।
तोरण द्वार चार दिशाओं में चार भव्य प्रवेश द्वार, जिन पर बुद्ध के जीवन, जातक कथाएँ, और पौराणिक दृश्यों की नक्काशी है।
सामग्री लकड़ी से पत्थर की ओर परिवर्तन, जो उस समय की तकनीकी प्रगति को दर्शाता है।
सांची में संरक्षित शारिपुत्र और मौद्गल्यायन की अस्थियाँ इसे थेरवाद बौद्धों के लिए महत्वपूर्ण तीर्थस्थल बनाती हैं। हर साल नवंबर में चेतियगिरि विहार उत्सव में इन अस्थियों को प्रदर्शित किया जाता है, जिसमें श्रीलंका और अन्य देशों से तीर्थयात्री शामिल होते हैं।
सांची का चित्रण भारतीय 200 रुपये के नोट पर किया गया है, और अशोक स्तंभ का शेर शीर्ष भारत का राष्ट्रीय चिह्न है। यह स्थल भारतीय धरोहर का प्रतीक है।
कलात्मक और वास्तुशिल्प विशेषताएँ
सांची की कला और वास्तुकला में निम्नलिखित विशेषताएँ उल्लेखनीय हैं –
अनिकोनिक कला – बुद्ध को प्रतीकों (पदचिह्न, बोधि वृक्ष) के माध्यम से दर्शाया गया, जो उस समय की परंपरा थी।
तोरण और रेलिंग – जटिल नक्काशी से सजे ये पत्थर के ढांचे बौद्ध कथाओं और दैनिक जीवन को चित्रित करते हैं।
तकनीकी प्रगति – लकड़ी से पत्थर की ओर परिवर्तन, जो मौर्य से सातवाहन काल तक की प्रगति को दर्शाता है।
सांची में शारिपुत्र और महामोग्गल्लान की अस्थियाँ संरक्षित हैं, जो 19वीं शताब्दी में खुदाई के दौरान मिली थीं। यह इसे थेरवाद बौद्धों के लिए एक पवित्र तीर्थस्थल बनाता है।
यह स्थल बौद्ध धर्म के प्रसार और भारतीय उपमहाद्वीप में इसकी कला तथा वास्तुकला के विकास का एक उत्कृष्ट उदाहरण है।
सांची में कई स्तूप, मठ, मंदिर और अन्य संरचनाएँ हैं, यह न केवल धार्मिक और कलात्मक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि ऐतिहासिक और पुरातात्विक रूप से भी प्राचीन भारत की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थितियों को समझने का एक स्रोत है।
सांची का बौद्ध स्तूप एक पुरातात्विक चमत्कार और बौद्ध धर्म, कला, और इतिहास का जीवंत प्रमाण है। यह भारत की समृद्ध विरासत का प्रतीक है। यह स्थल विश्व के लिए एक अमूल्य धरोहर है, जो प्राचीन काल की संस्कृति और मानव सभ्यता में बौद्ध धर्म के योगदान को उजागर करता है।
सांची का बौद्ध स्तूप भारत का 19वां विश्व धरोहर स्थल है जिसे यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल के रूप में निम्नलिखित मानदंडों के तहत मान्यता दी गई है –
(i) सांची में बौद्ध स्मारकों को समूह अपनी आयु और गुणवत्ता के कारण भारत में अद्वितीय है।
(ii) सांची की भूमिका के बाद और बाद में भारत में शुंग, शातवाहन, कृषाण और गुप्त राजवंशों की भूमिकों की पुष्टि हुई।
(iii) प्रारंभिक मध्यकालीन भारत और बौद्ध धम्र का प्रमुख केन्द्र बने रहने के बाद, सांची तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व से पहली शताब्दी ईस्वी तक की अवधि में एक प्रमुख बौद्ध स्थल के रूप में अद्वितीय साक्ष्य रखता है।
(iv) सांची के स्तूप 1 और 3 की संरचनाओं से पत्थर की संरचनाओं में परिवर्तन का प्रतिनिधित्व करते हुए मेगालिथिक टीलों के आदिम रूपों में निरंतर उपयोग के साक्षी हैं।
(vi) सांची सबसे पुराने विद्यतान बौद्ध स्थलों में से एक हैं।
सांची का बौद्ध स्तूप केवल एक पुरातात्विक स्थल नहीं, बल्कि एक जीवंत धरोहर है जो इतिहास, कला और आध्यात्मिकता का संगम प्रस्तुत करता है।
सांची का बौद्ध स्तूप मध्य प्रदेश, भारत में स्थित एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक रूप से महत्वपूर्ण स्थल है, जिसे यूनेस्को ने 1989 में विश्व धरोहर स्थल घोषित किया।

भीमबेटका के शैलाश्रय
भीमबेटका के शैलाश्रय मध्य प्रदेश के रायसेन जिले में भोपाल से लगभग 45 किलोमीटर (28 मील) दक्षिण-पूर्व में स्थित है।
यह विंध्य पर्वतमाला की तलहटी में बलुआ पत्थर की चट्टानों में समाहित रातापानी वन्यजीव अभयारण्य के अंदर है।
07 पहाड़ियाँ (विनायक, भोंरावली, भीमबेटका, लाखा जुआर (पूर्व और पश्चिम), झोंड्रा और मुनि बाबाकी पहाड़ी) में 1893 हेक्टेयर में 10 किलोमीटर में फैले 750 से अधिक शैलाश्रय हैं।
भीमबेटका के शैलाश्रयों के प्रागैतिहासिक चित्रकारी हैं, जो विभिन्न रंगों जैसा हरा, लाल, सफेद, भूरा और काला में बने हैं। ये चित्रकारी शिकारी संग्रहक जीवक, नृत्य, संगीत और बाद में कृषि गतिविधियों को दर्शाते हैं।
भीमबेटका का अर्थ है भीम (महाभारत के पाँच पांडवों में से दूसरे भाई) और बैठका (बैठक या विश्राम स्थल) से मिलकर बना है।
भीमबेटका शैलाश्रय भारत में मानव जीवन के शुरूआती निशान के रूप में पुरापाषाणकाल और मध्य पाषाणकाल (1,00,000 साल से पहले लोग) से एक ऐतिहासिक पुरातात्विक स्थल हैं।
भीमबेटका के शैल चित्रों की खोज डॉ. विष्णुश्रीधर वाकणकर द्वारा वर्ष 1957-58 में किया गया था। भीमबेटका से ज्ञात होता है कि पाषाणकाल के प्रारंभ में आदिम मानव जंगलों में प्रकृति के परिवर्तन के साथ इन गुफाओं में अपने परिवार व टोली समूहों बनाकर निवास करने लगे। भीमबेटका में विश्व की सबसे पुरानी मानव निर्मित पाषाण की दीवार और फर्श के प्रमाण मिल हैं।
इन गुफा चित्रों में जानवरों, पाषाण युग से नृत्य और शिकार के शुरुआती साक्ष्य और साथ ही बाद के समय (कांस्य युग) से घोड़े पर सवार योद्धाओं जैसे विषयों को दिखाया गया है।
भीमबेटका स्थल में भारत की सबसे पुरानी ज्ञात रॉक कला है, और साथ ही यह सबसे बड़े प्रागैतिहासिक परिसरों में से एक है।
भीमबेटका के शैल आश्रयों और गुफाओं में बड़ी संख्या में चित्रकारी हैं। कुछ सबसे पुरानी पेंटिंग 10 हजार साल ईसा पूर्व की हैं।
ऊपरी पुरापाषाण काल (पेलियोलिथिक) – के शैलचित्र विशालकाय रूप में बाइसन, बाघ, गैंडा जानवारों का चित्रण हरे रंग में नृत्य और शिकार करते मनुष्यों के रैखिक चित्रण हैं।
मध्य पाषाणकाल (मेसोलिथिक) – आकार में तुलनात्मक रूप से छोटे इस समूह में शैलीबद्ध आंकड़े शरीर पर रैखिक सजावट दिखाते हैं। जानवरों के अलावा मानव आकृतियाँ और शिकार के दृश्य हैं, कांटेदार भाले, नुकीली ड़डे धनुष और तीर आदि का चित्रण। नृत्य, पक्षी, संगीत वाद्ययंत्र, माताओं और बच्चे, गर्भवती महिलाएँ, मृत जानवरों को ले जाने वाले पुरुष दफ़नाने का चित्रण दिखाई देता है।
नव पाषाणकाल (चालकोलिथिक – ताम्रपाषाण) मध्यपाषाण काल के चित्रों के समान, इन चित्रों से पता चलता है कि इस अवधि के दौरान इस क्षेत्र के गुफा निवासी मालवा के मैदानों के कृषक समुदायों के संपर्क में थे और अपने जीवन यापन के लिए अनाज व साधनों के साथ वस्तुओं का आदान-प्रदान के दृश्यों का चित्रण है।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के साक्ष्य अनुसार इन गुफाओं में पाषाण युग से लेकर लेट ऐच्यूलियन से लेट मेसोलिथिक तक दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व तक यहाँ निरंतर मानव बसाव रहा है।
प्रारंभिक ऐतिहासिक काल (लोहयुग) – इस समूह की आकृतियाँ योजनाबद्ध और सजावटी शैली की हैं और इन्हें मुख्य रूप से सफ़ेद और पीले रंग में चित्रित किया गया है। सफेद रंग के चित्र पवित्र व देवताओं से संबंधित इसमें सवार, धार्मिक प्रतीकों का चित्रण, जैसी पोशाकें और विभिन्न अवधियों की लिपियों का अस्तित्व शामिल है। धार्मिक विश्वासों को यक्षों, वृक्ष देवताओं और आकाश रथों की आकृतियों द्वारा दर्शाया गया है।
मध्यकालीन – लोहयुग में पेंटिंग ज्यामितीय रेखीय और अधिक योजनाबद्ध हैं, लेकिन वे अपनी कलात्मक शैली में पतन और भद्दापन दिखाते हैं। गुफा निवासियों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले रंग काले मैंगनीज ऑक्साइड, लाल हेमेटाइट और चारकोल को मिलाकर तैयार किए गए थे।
एक चट्टान, जिसे लोकप्रिय रूप से ज़ू रॉक (चिड़िया घर के नाम से प्रसिद्ध) के रूप में जाना जाता है, पर हाथी, बारहसिंगा (दलदल हिरण), बाइसन और हिरण को दर्शाया गया है।
एक चट्टान पर पेंटिंग में एक मोर, एक साँप, एक हिरण और सूरज को दिखाया गया है।
एक चट्टान पर, दो हाथी दाँतों के साथ चित्रित हैं।
शिकारियों द्वारा धनुष, तीर, तलवार और ढाल लेकर शिकार के दृश्य भी इन प्रागैतिहासिक चित्रों के समुदाय में अपना स्थान पाते हैं। गुफाओं में से एक में, एक बाइसन को एक शिकारी का पीछा करते हुए दिखाया गया है, जबकि उसके दो साथी असहाय रूप से पास में खड़े दिखाई देते हैं; दूसरे में, कुछ घुड़सवारों को तीरंदाजों के साथ देखा जाता है। एक पेंटिंग में, एक बड़ा जंगली गोजातीय (संभवतः एक गौर या बाइसन) देखा जाता है।
इन शैलाश्रयों में चित्रित जंगली जानवरों में हिरण और मृग सबसे अधिक संख्या में हैं। चित्रों में शिकारियों के समूह शामिल हैं; ऐसे ही एक समूह को गैंडे से भागते हुए दिखाया गया है। अन्य समूह हिरण, मृग और अन्य शिकार का शिकार करने में लगे हुए हैं। भाला और धनुष-बाण शिकार के मुख्य हथियार हैं; मछली और कछुए को जाल में फंसाया जा रहा है, और चूहों को पकड़ने के लिए उनके बिलों से बाहर निकाला जा रहा है।
चित्रों को मुख्य रूप से दो समूहों में वर्गीकृत किया गया है, एक में शिकारियों और भोजन संग्रहकर्ताओं का चित्रण है, और दूसरे में योद्धाओं के रूप में, घोड़ों और हाथी पर सवार होकर धातु के हथियार लिए हुए हैं।
चित्रों का पहला समूह प्रागैतिहासिक काल का है जबकि दूसरा ऐतिहासिक काल का है। ऐतिहासिक काल के अधिकांश चित्रों में तलवारें, भाले, धनुष और तीर लेकर चलने वाले शासकों के बीच लड़ाई को दर्शाया गया है।
उजाड़ शैलाश्रयों में से एक में त्रिशूल जैसा डंडा पकड़े और नाचते हुए एक व्यक्ति की पेंटिंग को पुरातत्वविद् ने नटराज उपनाम दिया है। यह अनुमान लगाया गया है कि कम से कम 100 शैलाश्रयों में पेंटिंग मिट गई होंगी।
भीमबेटका के शैल चित्रों (रॉक आर्ट) प्राचीनकाल में मानव के अस्तित्व, रहन-सहन, संस्कृति व कलात्मक जीवन शैली के अवशेष से हमें अवगत करा रहे हैं।
चट्टान आश्रय और गुफाएँ मानव बस्ती और शिकारी-संग्राहकों से कृषि तथा सांस्कृतिक विकास और प्रागैतिहासिक आध्यात्मिकता की अभिव्यक्ति का प्रमाण प्रस्तुत करती हैं।
भीमबेटका के शैलाश्रय सबसे प्रारंभिक मानवीय गतिविधियों का पता कई पत्थर के औजारों से चलता है, जिनमें हाथ की कुल्हाड़ी, क्लीवर और कंकड़ के औजार भी शामिल हैं।
उत्तरार्द्ध प्राथमिक संदर्भों में प्रासंगिक रूप से पाया गया था। निम्न पुरापाषाण काल से मानव विकास की निरंतरता मध्य पुरापाषाण काल में पत्थर के औजारों के छोटे आकार के अलावा स्क्रैपर जैसे नए औजारों से देखी जा सकती है।
उच्च पुरापाषाण काल के दौरान नए औजार जैसे बोरर और ब्यूरिन भी सामने आए थे। पहले, उपकरण बड़े पैमाने पर क्वार्टजाइट और बलुआ पत्थर से बने होते थे, जबकि मेसोलिथिक काल में बनाए जा रहे औजार ज्यादातर चौलेडोनी के होते थे। इस अवधि के पत्थर के औजारों में ब्लेड, त्रिकोण, ट्रेपेज़, अर्धचंद्र के अलावा क्वर्न और मुलर शामिल हैं।
भीमबेटका में मध्यपाषाण संस्कृति बहुत लंबे समय तक जारी रही, जैसा कि मध्यपाषाण संदर्भों में ताम्रपाषाण मिट्टी के बर्तनों की उपस्थिति से समझा जा सकता है। प्रारंभिक ऐतिहासिक समय तक ऐसा प्रतीत होता है कि आस-पास की संस्कृतियों के साथ बातचीत अधिक स्पष्ट हो गई थी। इसका प्रमाण इस स्थल पर बाद में निर्मित मंदिर से कुछ ही दूर एक इनसेलबर्ग जैसे आउटक्रॉप के शीर्ष भाग पर एक रॉक शेल्टर में रॉक-कट बेड की उपस्थिति से मिलता है।
गुफा में मौर्य/शुंग काल का एक छोटा शिलालेख भी है। भीमबेटका शैलाश्रयों के समूह के सामान्य क्षेत्र में भीमबेटका, भोरनवाली के पास, बिनेका में, लाखाजुआर में और लाखाजुआर और भीमबेटका के बीच में छोटे स्तूप पाए गए हैं। बिनेका में स्तूप के अलावा दीवार और अन्य संरचनाएं पाई गईं। भीमबेटका शैलाश्रयों के समूह में बड़ी संख्या में शंख लिपि शिलालेख हैं।
भीमबेटका में जीवित रहने के लिए सामान्य गतिविधियों के अलावा यहाँ सबसे पहला प्रयास ऑडिटोरियम रॉक शेल्टर के अंत में छोटे कप जैसे गड्ढों की नक्काशी है, जो लगभग 100000 साल पुराना है। इस सुरंग के अंत के पास एक शिकारी, हिरण, बाघ मवेशी और शैलीबद्ध मोर को दर्शाती पेंटिंग का एक समूह है।
जू रॉक शेल्टर में मेसोलिथिक से लेकर मध्यकालीन तक की पेंटिंग हैं। यहाँ की पेंटिंग में गहरे लाल रंग में चित्रित एक मेसोलिथिक सूअर, हाथी, गैंडा, सूअर, बारहसिंगा, चित्तीदार हिरण और मवेशी और साँप आदि जैसे जानवर शामिल हैं। बाद की पेंटिंग में लाल रंग में चित्रित युद्ध के दृश्य और सफेद रंग में चित्रित एक हाथी शामिल हैं।
बोअर रॉक पर एक पौराणिक सूअर का चित्रण है जिसके सींग उस मानव से कई गुना बड़े हैं जिसका वह पीछा कर रहा है।
इन गुफाओं में प्राकृतिक लाल और सफेद रंगों से बने मनुष्यों के चित्रों के अलावा, कई गुफाओं में चीते, कुत्ते, छिपकली, हाथी, भैंस आदि जैसे विभिन्न जीवों के रंग-बिरंगे चित्र भी बने हुए हैं।
भीमबेटका के शैलाश्रय भारत का 19वां विश्व धरोहर स्थल है जिसे यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल के रूप में निम्नलिखित मानदंडों के तहत मान्यता दी गई है –
(iii) यह एक अद्धितीय साक्ष्य है, जो एक सांस्कृतिक परंपरा या सभ्यता को दर्शाता है, जो जीवित व लुप्त हो गई है।
(vi) यह एक पारंपरिक मानव बस्ती, भूमि उपयोग का प्रतिनिधित्व करता है जो एक संस्कृति का विशेष रूप से जब यह अपरिर्वनीय परिवर्तन के प्रभाव से संवेदनशील हो गया है।
वर्ष 2003 में यूनेस्को ने इसे विश्व धरोहर स्थल घोषित किया।
भीमबेटका गुफाओं में बनी चित्रकारियाँ यहाँ रहने वाले पाषाणकालीन मनुष्यों के जीवन को दर्शाती है। यह भारत में मानव जीवन के शुरुआती निशान और ऐचलियन काल में इस स्थल पर शुरू होने वाले पाषाण युग के साक्ष्य प्रदर्शित करता है तथा सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत का एक अनमोल हिस्सा है।
उत्तर प्रदेश के सभी विश्व विरासत (धरोहर) स्थल UNESCO World Heritage Sites in Uttar Pradesh
आगरा किला वर्ष 1983 (सांस्कृतिक स्थल)
ताज महल वर्ष 1983 (सांस्कृतिक स्थल)
फतेहपुर सीकरी वर्ष 1986 (सांस्कृतिक स्थल)
आगरा किला
आगरा किला उत्तर प्रदेश के आगरा शहर में ताजमहल से 2.5 किलोमीटर की दूरी पर उत्तर पश्चिम में यमुना नदी के तट पर स्थित आगरा किला लाल बुलआ पत्थरों से बनी एक ऐतिहासिक विशाल मुगल किला है।
1504 ई. में सिकन्दर लोदी ने आगरा शहर की स्थापना की और 1505 ई. में उसने अपनी राजधानी को दिल्ली से आगरा स्थानांतरित किया।
ऐसा माना जाता है कि आगरा में एक संरचना पहले से मौजूद थी, जिसे सिकंदर लोदी ने विकसित किया और उसकी किलाबंदी करवाई। वर्ष 1517 ई. में सिकन्दर लोदी की मृत्यु के बाद उसका पुत्र इब्राहिम लोदी आगरा की सिंहासन पर बैठा। 21 अप्रैल 1526 ई. को पानीपत के प्रथम युद्ध में इब्राहिम लोदी को मुगल वंश के संस्थापक बाबर ने हरा दिया।
पहले मुगल सम्राट बाबर ने आगरा को मुगल रियासतों की राजधानी बनाया। 26 दिसम्बर 1530 ई. में बाबर की मृत्यु आगरा में हुई।
29 दिसंबर 1530 में बाबर का बेटा हुमायूँ आगरा के सिंहासन पर बैठा इसी किले में उसका राज्याभिषेक हुआ था। 1540 ई. में बिलग्राम/कन्नौज युद्ध में शेर खाँ ने हुमायूँ को पराजित कर दिया और दिल्ली और आगरा पर कब्जा कर अपने सैन्य गढ़ स्थापित किया।
वर्ष 1558 ई. में मुगल सम्राट अकबर जब आगरा पहुँचे तब उसके राजनीतिक महत्व को समझते हुए उन्होंने लाल बलुआ पत्थरों से वर्तमान में मौजूदा आगरा किला को शानदार स्वरूप का निर्माण करवाया।
अबुल फलज के अकबरनामा के अनुसार किले के परिसर के अंदर की इमारतों को ग्वालियर, गुजरात और राजस्थान की वास्तुशिल्पीय शैलियों में बनाया गया था किले के निर्माण में 8 साल का समय लगा और 1573 में इसे पूरा किया गया।
आगरा किला को लाल किला या किला-ए-अकबरी के नाम से भी जाना जाता है।
आगरा किला 94 एकड़ क्षेत्र में फैला हुआ है। किले के चारों ओर एक मजबूत दुर्ग है और नियमित अंतराल पर विस्तृत विशाल चक्राकार गढ़ों वाली दोहरी दीवारें हैं। किला अर्धचन्द्राकार है।
इसकी दीवारें 70 फीट ऊँची हैं। दीवारें दोहरी प्राचीरों से बनी हैं, जिनमें गोल बस्तियां, तोपखाने के लिए खिड़कियाँ और मशीनगुनी छेद शामिल हैं।
इसके चारों तरफ 04 द्वारा बनाए गए थे, एक खिजरी द्वार (पानी का द्वार) यमुना नदी की ओर खुलता था, अमर सिंह द्वार, दिल्ली द्वार और गजनी द्वार।
जहाँगीरी महल – अकबर ने अपनी बेटे जहाँगीर के लिए जहाँगीरी महल का निर्माण करवाया था। लाल पत्थर से बना एक बड़ा वर्गाकार महल है जिसका बाहरी सजावटी भाग एक खुले प्रांगण के चारों से घेरे हुए हैं।
शाहजहानी महल – यह सफेद संगमरमर के खास महल और लाल पत्थर के जहांगीरी महल के मध्य में स्थित है। इसमें एक बड़ा हॉल, नदी के किनारे एक अष्टकोणीय मीनार है।
न्याय की जंजीर – जहाँगीर ने आगरा किले में 120 किलोग्राम की सोने की, 80 फीट लंबी, 60 घंटियाँ वाले न्याय की जंजीर लगवाई थी। जिसका उद्देश्य इस जंजीर को हिला कर सम्राट के समक्ष न्याय की गुहार लगा सके।
गजनी गेट – 16.5 फीट ऊँचा और 13.5 फीट चौड़ा है और इसका वजन 500 किलोग्राम है। यह ज्यामितीय, षट्कोणीय और अष्टकोणीय पैनलों से बना है।
शाहजहाँ ने आगरे किले के परिसर में सफेद संगमरमर की तीन मस्जिदों का निर्माण करवाया था – मोती मस्जिद, मीना मस्जिद और नगीना मस्जिद। मोती मस्जिद किले के सबसे ऊँचे स्थान पर स्थित है। नगीना मस्जिद में उत्कृष्ट इमादतखाना भी है और इसके ऊपर तीन गुंबद है। मीना मस्जिद साधारण मस्जिद है, जो चारों तरफ से ऊँची दीवारों से घिरी हुई है।
खास महल – जिसमें एक तरफ नदी और दूसरी तरफ अंगूरी बाग है। खास महल के दक्षिण में एक सीढ़ी भूमिगत कक्षों की ओर लेकर जाती है जिसका उपयोग सम्राट और उनकी रानियाँ गर्मी के समय करते थे।
अंगूरी बाग – खास महल के सामने बड़ा चतुर्भुज अंगूरी बाग है, मुगलों बागों का एक विशिष्ट उदाहरण है। जिसमें केन्द्रीय मंच और फव्वारे से बाहर की ओर निकलती 04 ज्यामितीय फूलों की क्यारियाँ और सीढ़ीदार रास्ते हैं।
शीश महल – अंगूरी बाग के उत्तर की ओर शीश महल है जिसे मुगल बादशाह शाहजहाँ ने इसे सीरिया के हलबे से काँच आयात कर इसमें काँच का मोजेक का काम करवाया है। ऐसा माना जाता है यह सजावट कक्ष और महिलाओं का स्नानागार था। इसकी दीवारों और छतों पर छोटे-छोटे शीशे लगे हैं।
आगरा किला का दीवान-ए-आम (सार्वजनिक श्रोताओं का हॉल/जनता दरबार या सभागार) – ताजमहल से 2.5 किलोमीटर की दूरी पर आगरा के किले में स्थित है। जिसका निर्माण शाहजहाँ ने 1631 से 1640 के मध्य कराया था।
यह वह स्थान है जहाँ शाहजहाँ और उनके उत्तराधिकारी आम जनता की फरियाद, शिकायते, परेशानियों को सुनकर न्याय करते थे।
दीवान-ए-आम का हॉल 201 फीट लंबा और 67 फीट चौड़ा है जो सपाट छत से ढका हुआ है। उत्तर और दक्षिण की ओर दो मेहराबदार लाल बलुआ पत्थर के प्रवेष द्वार। अग्रभाग मं नौ मोटे मेहराबों वाला एक आर्केड है, जो तीन गलियारों में विभाजित है।
मूल रूप से लाल बलुआ पत्थर से बनी इस इमारत को सफेद संगमरमर जैसा दिखने वाले सफेद शंख के पेस्ट से प्लास्टर किया गया है।
सिंहासन के नीचे संगमरमर का मंच बना है इसका उपयोग याचिकाएँ प्राप्त करने के लिए किया जाता था।
48 नक्काशीदार खंभों यह इमारत भारतीय और फारसी वास्तुकला की सुंदरता को दर्शाता है।
जहाँगीर का हौज (टैंक बाथ टब) – दीवान-ए-आम के ठीक सामने एक बड़े पत्थर के एक ही खंड से बना हुआ टैंक या कुंड जो जहाँगीर का हौज के नाम से प्रसिद्ध है। यह 5 फीट ऊँचा 3000 किलोग्राम वजनी है। हौज के बाहरी किनारे के चारों ओर एक फारसी अभिलेख हैं जिसमें यह लिखा है कि इसे जहाँगीर के लिए बनवाया गया था।
मुसम्मन बुर्ज – आगरे किले के सबसे बड़े बुर्ज पर बना मीनार है। एक अष्टकोणीय योजना होने के कारण इसे मुथम्मन बुर्ज (शाह बुर्ज) कहा जाता है। इस बुर्ज से ताजमहल का पूरा और राजसी नजारा दिखाई है औरंगजेब ने अपने पिता शाहजहाँ को यहीं 08 साल मृत्यु तक कारावास के रूप में इसी परिसर में रखा था।
आगरा किले का दीवान-ए-खास (निजी श्रोताओं का हॉल) –
दीवान-ए-खास का निर्माण वर्ष 1637 ईं किया गया था। सफेद संगमरमर के मंडपों पर अलंकृत विस्तृत सजावटी रचनाएँ फारसी कला से प्रेरित आयताकार इमारत है।
इमारत में अंदर की छत चाँदी से निर्मित थी तथा उसमें संगमरमर, सोने और बहुमूल्य पत्थरों की सजावट थी। यह दो हिस्सें में विभाजित है, जो तीन बुर्जों से आपस में जुड़ा हुआ है।
आगरा का किला यूनेस्को की वर्ष 1983 में घोषित विश्व धरोहर स्थल की सूची में शामिल होने वाले स्थलों में से एक है। यूनेस्को द्वारा आगरा किला को विश्व धरोहर स्थल घोषित किया जाना, इसके सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत को दर्शाता है।
मानदंड (ii) के तहत सूचीबद्ध किया गया जो सांस्कृतिक परंपरा या लुप्त हो चुकी सभ्यता के लिए अद्वितीय साक्ष्य के लिए है। यह मुगल सभ्यता की वास्तुशिल्पीय और सांस्कृतिक विरासत का एक महत्वपूर्ण साक्ष्य है।
आगरा का किला मुगलों के सबसे महत्वपूर्ण और मजबूती से निर्मित गढ़ों में से एक जो कला और वास्तुकला की प्रभावशाली मुगल शैली को दर्शाता कई समृद्ध सुसज्जित इमारतों से सुशोभित है।
आगरा किला मुगल साम्राल्य की शक्ति और भव्यता का प्रतीक है। यह भारत की समृद्ध सांस्कृतिक और वास्तुषिल्प विरासत का एक स्मारक है।

ताज महल
ताज महल उत्तर प्रदेश के आगरा में यमुना नदी के किनारे पर दुनिया के 07 अजूबों में से एक ताज महल एक सफेद मकबरा है।
ताज महल अरबी और फरसी शब्द से बना है ताज का अर्थ ‘‘मुकुट‘‘ और महल है।
इसे 5वें मुगल बादशाह शाहजहाँ ने अपनी तीसरी प्रिय बेगम मुमताज महल (अर्जुमंद बानो बेगम) की याद में बनवाया था, जिनकी मृत्यु उनके 14वें बच्चे को जन्म देते समय 1631 में हो गई थी। इसमें शाहजहाँ की भी कब्र है।
ताज महल 42 एकड़ के परिसर में स्थित है जिसमें एक मस्जिद, एक अतिथि गृह और एक उद्यान है।
ताज महल का निर्माण 1632 में शुरू हुआ था और 1648 में पूरा हुआ, ताज महल परिसर का संपूर्ण कार्य 1653 में पूरा हुआ था।
ताज महल के निर्माण के लिए 3 एकड़ क्षेत्र खोदा गया और नदी के किनारे के स्तर पर 160 फीट समतल किया गया। जमीन के ऊपर का चबूतरा ईंट और गारे से बनाया गया।
ताज महल के निर्माण में 20,000 से अधिक कारीगर, मजदूर, चित्रकार और अन्य लोग शामिल थे अनुमानित लागत 32 मिलियन (3 करोड़ 20 लाख) थी।
ताज महल के मुख्य वास्तुकार उस्ताद अहमद लाहौरी थे।
इसकी स्थापत्य शैली इंडो- इस्लामिक और मुगल वास्तुकला है।
ताज महल का पूरा परिसर यमुना नदी के किनारे पर 980 फीट लंबे और 28.5 फीट ऊँचे मंच पर स्थित है।
ताज महल की सफेद संगमरमर की संरचना 20 फीट ऊँचे चबूतरे पर और जिसकी भुजाएँ 313 फीट लंबी हैं। मकबरे के ऊपर 75 फीट ऊँचा संगमरमर का गुंबद है। मकबरे की इमारत के दोनों ओर चार मीनारें हैं जो 130 फीट से अधिक ऊँची हैं।
गुबंदों के बाहरी सतहों को छोड़कर लाल बलुआ पत्थर फतेहपुर सिकरी से और सफेद संगमरमर राजस्थान के मकराना से लाया गया था।
इसके अलावा तिब्बत से फिरोजा, अफगानिस्थान से लापीस लाजुली, चीन से जेड और क्रिस्टल, श्रीलंका से नीलम और अरब से कार्नेलियन कुल मिलाकर 28 प्रकार के कीमती और अर्ध कीमती पत्थर इसमें जड़े गए जो संगमरमर इन पत्थरों के साथ जड़ा हुआ काम इसे एक अलग स्मारक बनाता है।
विशाल दो मंजिला गुंबदाकार कक्ष जिसमें मुमताज महल और शाहजहाँ की समाधि है, दोनों समाधियों को घेरे हुए उत्तम अष्टकोणीय संगमरमर की जालीदार शानदार कारीगरी का उदाहरण है। मुमजात महल की समाधि मकबरे के कक्ष के बिल्कुल मध्य में है आयतकार मंच पर रखा गया है और जिसे फुल पौधों के रूपांकनों से सजाए गए है। शाहजहाँ की समाधि मुमजात महल से बड़ी है। असली कब्रें निचले तहखाने में हैं, ऊपरी समाधि केवल प्रतिरूप है।
ताज महल परिसर में चारबाग या मुगल उद्यान के चारों ओर स्थापित है। परिसर के पश्चिमी हिस्से में एक मस्जिद है। ताजमहल परिसर तीन तफर लाल बलुआ पत्थर की दीवारों से घिरा हुआ है, जिसमें यमुना नदी की ओर वाला भाग खुला है।
ताज महल न केवल एक मकबरा है, बल्कि यह मुगल वास्तुकला का सबसे अच्छा उदाहरण है, जो भारतीय, फारसी और इस्लामिक शैलियों का मिश्रण है।
यह शाहजहाँ की शक्ति और समृद्धि का प्रतीक है, और इसे प्रेम का स्मारक माना जाता है। यह इस्लामिक कला का रत्न और दुनिया के सात अजूबों में से एक है।
ताज महल का रंग सुबह में गुलाबी, शाम को दूधिया सफेद और चांदनी रात में सुनहरा दिखाई देता है। मीनारों का बाहर की ओर झुकना इसे भूकंप के दौरान रक्षा प्रदान करती है।
ताज महल इंडो-इस्लामिक वास्तुकला की सामंजस्य, उत्कृष्ट षिल्पकला, बेहतरीन वास्तुकला और कलात्मक उपलब्धि का नायाब उदाहरण है।
ताज महल वर्ष 1983 में यूनेस्को द्वारा शामिल विश्व धरोहर स्थल में से एक है। ताज महल जिसे यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल के रूप में निम्नलिखित मानदंड के तहत मान्यता दी गई है –
(i) यह इंडो इस्लामिक वास्तुकला और कला का उत्कृष्ट उदाहरण।
ताज महल मुगल वास्तुकला का एक अनमोल विरासत है, जो प्रेम, कला और इंजीनियरिंग का प्रतीक है।

फतेहपुर सीकरी
फतेहपुर सीकरी उत्तर प्रदेश के आगरा जिले से लगभग 40 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
फतेहपुर सीकरी का पुराना नाम फतेहबाद था। फतेहपुर सीकरी मुगल सम्राट अकबर (1556-1605) द्वारा 16वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में सन् 1571 में गुजरात विजय के बाद बसाया गया था। आगरा से राजधानी फतेहपुर सीकरी स्थानांतरण किया था।
फतेहपुर सीकरी 1571 से 1585 तक केवल 14 वर्षों तक अकबर की राजधानी रही। पानी की कमी के कारण और अन्य राजनीतिक कारणों से 1585 को अपनी राजधानी लाहौर स्थानांतरित करने के बाद मुगल सम्राटों के लिए एक क्षेत्र के रूप में बना रहा।
फतेहपुर सीकरी को अकबर की नगरी, विजय नगर या जीत नगरी के नाम से भी जाना जाता है।
फतेहपुर सीकरी के इमारतें
बुलंद दरवाजा – फतेहपुर सीकरी की सर्वोच्च इमारत है। जिसका निर्माण 1602 में अकबर ने दक्कन पर विजय की स्मृति में कराया था। बुलंद दरवाजा 53.63 मीटर ऊँचा, 35 मीटर चौड़ा जिसमें 42 सीढ़ियाँ हैं।
बुलंद दरवाजा भारत और दुनिया का सबसे बड़ा दरवाजा है। लाल बलुआ पत्थर से निर्मित है। जिसे सफेद संगमरमर से सुसज्जित किया गया है। दरवाजे के आगे और स्तंभों में कुरान की आयतें इसके साथ तोरण पर बाइबल की कुछ पंक्तियां लिखी गई हैं जो इसके धार्मिक सहिष्णुता का दर्शाता है।
बुलंद दरवाज के निर्माण में 12 वर्षों का समय लगा था। इसके बाईं ओर जामा मस्जिद और सामने शेख सलीम चिश्ती का दरगाह शेख का मजार है। बुलंद दरवाजा को भव्यता का द्वार से भी जाना जाता है। यह हिंदु और फारसी वास्तुकला का बेजोड़ नमूना है।
जामा मस्जिद (जामी मस्जिद) – फतेहपुर सीकरी में 16वीं सदी की सूफी शुक्रवार मस्जिद और दरगाह परिसर है। इसका निर्माण अकबर ने 1571 और 1574 के मध्य करावाया था। इसका निर्माण अकबर के आध्यात्मिक सलाहकार सूफी शेख सलीम चिश्ती के सम्मान में बनाई गई थी।
इसकी वास्तुकला इंडो-इस्लामिक मुगल है। इसकी लंबाई 542 फीट, चौड़ाई 438 फीट जिसमें तीन गुंबद है। इसका निर्माण लाल बलुआ पत्थर, संगमरमर और स्लेट से किया गया है। इसके प्रांगण के उत्तरी भाग में सलीम चिश्ती का मकबरा, इस्लाम खान का मकबरा और चिश्ती परिवार के कई अन्य सदस्यों के मकबरे हैं।
सलीम चिश्ती का मकबरा – जामा मस्जिद के चतुर्भुज के भीतर स्थित है। इसका निर्माण 1580-1581 में सम्राट अकबर ने शाही परिसर के साथ कराया था। भारत में मुगल वास्तुकला के बेहतरीन उदाहरणों में से एक माना जाता है।
मकबरा का मंच 1 मीटर ऊँचा है जिसमें प्रवेश द्वार तक जाने के लिए 05 सीढ़ियाँ हैं। एक अर्ध गोलाकार गुंबद है। चबूतरा ज्यामितीय पैटर्न में काले और पीले संगमरमर के मोजाइक से अंलकृत है। स्मारक के चारों ओर एक आबनूस छपरखट घेरा है।
फतेहपुर सिकरी का दीवान-ए-खास (निजी श्रोताओं का हॉल) –
दीवान-ए-खास शाही परिसर में ख्वाबगाह महल के दक्षिण में स्थित है।
लाल बलुआ पत्थर से निर्मित है जो दो मंजिल प्रतीत होने वाली वर्गाकर इमारत वास्तव में एक ही मंजिल है तथा इसके चारो ओर दरवाजे हैं।
इसके बीचों बीच एक अत्यधिक अलंकृत स्तंभ है जिसके विषाल शीर्ष से कमरों के चारों कोने तक संकरे जालीदार रास्ते बनाये गये हैं। इमारत के प्रत्येक कोने पर चार खूबसूरत कियोस्क हैं जो आकार में अष्टकोणीय हैं और शीर्ष पर एक उल्टे कमल के साथ एक गोलाकार गुंबद है।
स्तंभ से जुड़ा केन्द्रीय मंच सम्राट की सीट थी, इसके विकर्ण दीर्घाओं को मंत्रियों और नवरत्नों की सीट माना जाता है।
फतेहपुर सिकरी का दीवान-ए-आम (सार्वजनिक श्रोताओं का हॉल/जनता दरबार) – शाही परिसर का पहला प्रांगण दीवान-ए-आम की ओर है।
इस आयताकार परिसर जो 112 मीटर और 55 मीटर में फैला हआ है। यह एक स्तंभयुक्त मार्ग (दलान) से घिरा हुआ है, जो 112 खंडों से बना है।
सम्राट का मंडप पश्चिम में लाल बलुआ पत्थर से बना एक छोटा आयताकार ढांचा है जो 9.27 गुणा 6.65 मीटर वाला एक कक्ष है। जिसमें 1.10 मीटर मोटी पत्थर की दीवार हैं जो 3.05 मीटर चौड़े पोर्टिको से घिरी हुई हैं। पोर्टिको को नक्काशीदार ब्रैकेट पर टिकी पत्थर की टाइल की छत (खपरेल) द्वारा सुसज्जित किया गया है। इस परिसर में सिंहासन कक्ष पूर्व की ओर है।
खजाने की छतरी (ज्योतिष की बैठक) – शाही परिसर में यह ज्योतिषी के बैठने का स्थान के नाम से विख्यात है परन्तु खजाने के निकट होने से यह अनुमान किया जाता है कि यहाँ शाही खजान्ची बैठता रहा होगा।
यह एक वर्गकार चबुतरा है जिसमें पहले चारों ओर पत्थर की मुंडेर रही होगी। इसकी सुंदर तोरण मेहराबें उत्कृष्ट कला की उदाहरण है जो मध्यकालीन पश्चिमी भारत के जैन मंदिरों से प्रभावित है।
खजाना महल – शाही परिसर में तीन कमरों वाला यह भवन जिसे अब आँख मिचौली कहा जाता है वास्तव में सोने, चाँदी के सिक्कों का राजकीय कोष था। जिममें तीन कमरे थे, जिसमें से प्रत्येक एक संकीर्ण गलियारे से सुरक्षित था।
इसकी विषेषता दीवालों से निकली पत्थर की तिरछी धारियाँ जो सर्पाकर सूँड़ वाले जीवों के जबड़ों से निकलते हुए बनाए गऐ हैं।
यह इमारत भारतीय इस्लामी वास्तुकला का अद्वितीय उदाहरण है।
पंचमहल – पाँच मंजिला इस महल में कुल 176 खंभे पर बनी है इसमें दीवार नहीं है। पंचमहल के भूतल पर 84 स्तंभ, पहली मंजिल में 56 स्तंभ, दूसरी में 20 स्तंभ, तीसरी मंजिल में 12 स्तंभ और सबसे ऊपर पाँचवीं मंजिल में 04 स्तंभ हैं जो एक छत्तरी को सहारा देता है। इसे बदगीर या हवा महल भी कहा जाता था।
परिसर के नीचे फर्श पर चौसर के खाने बने हैं। जिस पर अलग-अलग कलाकृति हैं। परिसर में पंच महल के सामने एक तालाब है जिसे अनूप तालाव के नाम से जाना जाता है।
तालाब के मध्य में एक चबुतरा बना है ऐसा माना जाता है कि इस पर अकबर के नवरत्न तानसेन (रामतनु) (दीपक राग) और बैजू बावरा (मेघ मल्हार) के मध्य संगीत प्रतियोगिता हुआ था।
तानसेन (हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के संस्थापक) संगीत का अभ्यास तथा कई अन्य कलाकार अपनी कला का प्रदर्शन यहाँ करते थे।
ख्वाबगाह (महल) – पंचमहल में अनूप तालाव के पीछे अकबर का ख्वावगाह या शयन कक्ष था। जो पंच महल, मरियम के घर ओर जोधाबाई के महल से गलियारों द्वारा जुड़ा हुआ है।
जोधाबाई का महल – जोधाबाई (मरियम-उज-जमानिया) अकबर की मुख्य और प्रमुख हिंदू पत्नी थी। वह राजपूत वंश के आमेर के राजा भारमल की बेटी और शक्तिषाली शासक मान सिंह की बहन तथा जहाँगीर की मां थी।
जोधाबाई महल फतेहपुर सीकरी का सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण महल जिसे अकबर ने 16वीं शताब्दी में अपनी प्रिय पत्नी जोधाबाई के लिए बनाया था।
यह 320 फुट लंबा और 215 फुट ऊँचा है। मुख्य रूप से लाल बलुआ पत्थर से निर्मित यह राजपूत और मुगल शैली के निर्माण का मिश्रण है। इस विशाल महल को पूर्व की ओर 9 मीटर ऊँची दीवारों से सुरक्षित किया गया है।
महल के ख्वाबगाह या शयन कक्ष में दो बड़े कक्ष गर्मी और सर्दी के मौसम के अनुकूल अनुसार उत्तर में ग्रीष्म विलास एवं दक्षिण में शरद विलास का निर्माण किया गया है।
जोधाबाई भगवान कृष्ण की भक्त थी इसलिए महल में एक मंदिर और महल के बरामदे में तुलसी चौरा है। झरोखे, जालियाँ या जालीदार काम तथा बेहतरीन नक्काशीदार पत्थर से सुसज्जित है।
इस महल की वास्तुकला हिंदू स्तंभों और मुस्लिम गुंबदों के साथ शैलियों का मिश्रण है।
जोधाबाई की रसोई जिसकी ढालुआँ छत की बाहरी दीवारों पर फूलकारी, ज्यामितिय नमूने, झुमकों की पट्टियाँ तथ चटाई अलंकरण उकेरे गए हैं।
हिरन मीनार ईमारत – सम्राट अकबरा के द्वारा इसे अपने पसंदीदा हाथी हिरम की याद में बनाया गया था।
अष्टकोणीय यह इमारत 21.34 मीटर ऊँची है जिसमें शीर्ष पर जाने के लिए 53 सीढ़ियाँ हैं। जो यात्रियों के लिए लाईट हाऊस के रूप में काम करता था। अनोखे तरीखे से डिजाइन किये गये इस इमारत में कई दाँत जैसे स्पाइक्स लगे हुए हैं। हिरन मीनार से फतेहपुर सिकरी का विहंगम दृश्य देखा जा सकता है।
तुर्की सुल्ताना का घर – अनूप तालाब के काने पर स्थित यह घर फुल से जुड़ा हुआ विश्राम के लिए एक मंडप था। छत पर ज्यामितीय पैटने तथा लकड़ी पर मध्य एशियाई नक्काशी का विस्मरण कराता है।
फतेहपुर सीकरी को यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल के रूप में निम्नलिखित मानदंडों के तहत मान्यता दी गई है –
मानदंड (ii) शाहजहानाबाद में बाद की वास्तु और शहरी योजना पर प्रभाव।
मानदंड (iii) यह 16वीं शताब्दी के अंत में मुगल सभ्यता की असाधारण गवाही।
मानदंड (iv) 1571-1585 की अवधि का उत्कृष्ट वास्तुशिल्प समूह, मानव इतिहास में एक महत्वपूर्ण चरण।
फतेहपुर सीकरी को यूनेस्को द्वारा 1986 में सांस्कृतिक श्रेणी में विश्व धरोहर स्थल के रूप में नामित किया गया।
फतेहपुर सीकरी के संपत्ति का क्षेत्र 60.735 हेक्टेयर और बफर जोन 475.545 हेक्टेयर हैं।
फतेहपुर सीकरी शहर सन् 1571 से 1585 के मध्य मुगल सभ्यता का एक असाधारण प्रमाण तथा अत्यंत उच्च गुणवत्ता वाले उत्तम इंडो-इस्लामिक वास्तुशिल्प का अनूठा उदाहरण है।
फतेहपुर सीकरी मुगल साम्राज्य की शक्ति और भव्यता का प्रतीक है। यह भारत की समृद्ध सांस्कृतिक और वास्तुशिल्प विरासत का एक उत्कृष्ट उदाहरण है।
असम के सभी विश्व विरासत (धरोहर) स्थल UNESCO World Heritage Sites in Assam
काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान वर्ष 1985 (प्राकृतिक स्थल)
मानस राष्ट्रीय उद्यान वर्ष 1985 (प्राकृतिक स्थल)
मोइदम (अहोम राजवंश की टीला दफनाने की प्रणाली) वर्ष 2024 (सांस्कृतिक स्थल)
असम भारत का ऐसा राज्य है जहाँ के दो राष्ट्रीय उद्यानों (काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान और मानस राष्ट्रीय उद्यान) को वर्ष 1985 में एक साथ विश्व धरोहर स्थल घोषित किया गया है।
काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान
काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान (Kaziranga National Park), असम राज्य के गोलाघाट, बिस्वानाथ, सोनितपुर और नागांव जिलों में स्थित है और इसे 1985 में यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल घोषित किया गया था।
यह एक-सींग वाले गैंडे की सबसे बड़ी आबादी (लगभग 2,600) और अन्य संकटग्रस्त प्रजातियों जैसे बाघ, एशियाई हाथी, और जंगली भैंस के लिए प्रसिद्ध है।
पार्क में 1090 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में घास के मैदान, दलदली झीलें, और घने जंगल शामिल हैं, जो जैव विविधता के लिए महत्वपूर्ण हैं।
शिकार, मानव बस्तियों, और बाढ़ जैसे चुनौतियां हैं, लेकिन संरक्षण प्रयास प्रभावी रहे हैं।
यह प्रवासी पक्षियों के लिए भी एक महत्वपूर्ण क्षेत्र है, जिसमें 500 से अधिक प्रजातियां पाई जाती हैं।
काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान का इतिहास 1905 में प्रारंभिक सर्वेक्षण से शुरू होता है, जब इसे रिजर्व फॉरेस्ट के रूप में स्थापित किया गया था। 1916 में इसे काजीरंगा गेम सैंक्चुअरी के रूप में पुनरूनियुक्त किया गया, और 1950 में इसे काजीरंगा वाइल्ड लाइफ सैंक्चुअरी के रूप में नामित किया गया। 1974 में, इसे राष्ट्रीय उद्यान घोषित किया गया, और 1985 में यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल का दर्जा मिला। 2007 में, इसे टाइगर रिजर्व के रूप में भी घोषित किया गया। यह प्रगति पार्क के बढ़ते महत्व को दर्शाती है।
काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान असम, भारत में स्थित है और इसे 1985 में यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल घोषित किया गया था, जो इसके जैव विविधता संरक्षण के लिए असाधारण महत्व को दर्शाता है।
यह 420 वर्ग मील क्षेत्र में फैला है और ब्रह्मपुत्र नदी के दक्षिणी तट के साथ स्थित है, जिसमें घास के मैदान, दलदली झीलें, और घने जंगल शामिल हैं।
यह कई नदियों के ग्लेशियल और बर्फ पिघलने वाले जल स्रोतों का घर है, जो डाउनस्ट्रीम के लाखों लोगों के लिए महत्वपूर्ण हैं।
पार्क की ऊंचाई 40 मीटर से 80 मीटर तक फैली है, जो मानसून से प्रभावित जंगलों से लेकर शांत घास के मैदानों तक विविध पारिस्थितिक तंत्र को समर्थन देती है। यह पालियार्कटिक और इंडोमालायन रियलम्स के जंक्शन पर स्थित है, जो इसे विशेष जैविक महत्व का क्षेत्र बनाता है।
काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान में स्तनधारी – भारतीय गैंडे, जंगली जल भैंसे, दलदल हिरण, हाथी, सांभर, रॉयल बंगाल टाइगर, तेंदुए, भारतीय ग्रे नेवला, बंगाल लोमड़ी, भारतीय पैंगोलिन, सुनहला लंगूर, गंगा डॉल्फिन, उड़ने वाली गिलहरी शामिल हैं।
काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान में पक्षी – एशियाई ओपनबिल सारस, डालमेशियन पेंलिकन, नॉर्डमैन का ग्रीनशैंक, बगुला, काली गर्दन वाली सारस, पल्लास मछली ईगल, छोटे केस्ट्रल शामिल हैं।
काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान एक नजर में
क्षेत्र -1090 वर्ग किलोमीटर (420 वर्ग मील)
काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान कब बना (स्थापित) – 1974 में
काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान को यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर स्थल कब घोषित किया गया – 1985
काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान टाइगर रिजर्व कब घोषित किया गया – 2007 में
पौधे प्रजातियां – घास के मैदान, दलदली झीलें, घने जंगल; विविध वनस्पतियां
जानवर प्रजातियां – 35 स्तनधारी, विभिन्न सरीसृप, उभयचर
संकटग्रस्त प्रजातियां – एक-सींग वाला गैंडा, बाघ, एशियाई हाथी, जंगली भैंस, गंगा नदी डॉल्फिन
काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान भारत का 07वां विश्व धरोहर स्थल है जिसे यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल के रूप में निम्नलिखित मानदंड के तहत मान्यता दी गई है –
मानदंड (ix) ब्रम्हापुत्र नदी प्रणाली द्वारा नदी प्रक्रियाओं के शानदार उदाहरण है।
मानदंड (x) काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान हिमालय जैव विविधता हॉटस्पॉट का हिस्सा है और एक-सींग वाले गैंडे की सबसे बड़ी आबादी (लगभग 2,600) का घर है। अन्य उल्लेखनीय स्तनधारियों में बाघ, एशियाई हाथी, जंगली भैंस, दलदली हिरण, सांभर हिरण, सूअर हिरण, गौर, तेंदुआ, और विभिन्न प्राइमेट्स शामिल हैं। पार्क में 500 से अधिक पक्षी प्रजातियां पाई जाती हैं, जिसमें ग्रेटर एडजुटेंट, पालस की फिश ईगल, और कई प्रवासी पक्षी शामिल हैं। इसके अलावा, यह विभिन्न सरीसृप और उभयचर, जैसे कछुए और संकटग्रस्त गंगा नदी डॉल्फिन का भी घर है।
काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान के साइट के संपत्ति का क्षेत्र 42,996 हेक्टेयर है।
काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान जैव विविधता संरक्षण के लिए एक महत्वपूर्ण क्षेत्र है, जो हिमालय के प्राकृतिक और सांस्कृतिक धरोहर को संरक्षित करता है।

मानस राष्ट्रीय उद्यान
मानस राष्ट्रीय उद्यान असम में स्थित है और इसे 1985 में यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल घोषित किया गया था।
यह जैव विविधता का एक महत्वपूर्ण केंद्र है, जिसमें दुर्लभ प्रजातियां जैसे बाघ, एक-सींग वाला गैंडा, और सुनहरी लंगूर शामिल हैं। हाल के वर्षों में, बाघों की संख्या में वृद्धि हुई है, और गैंडों को पुनःस्थापित करने के प्रयास किए गए हैं।
इस पार्क का नाम मानस नदी पर रखा गया है जो इस पार्क के मध्य से होकर गुजरती है।
मानस राष्ट्रीय उद्यान असम के पश्चिमी हिस्से में, हिमालय की तलहटी में स्थित है, और भूटान के रॉयल मानस राष्ट्रीय उद्यान के साथ सीमा साझा करता है।
इसका क्षेत्रफल 39,100 हेक्टेयर है, जो मानस टाइगर रिजर्व का हिस्सा है, जिसका कुल क्षेत्र 283,700 हेक्टेयर है।
मानस राष्ट्रीय उद्यान, जो असम के पश्चिमी हिस्से में हिमालय की तलहटी में स्थित है, एक यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल है, जो जैव विविधता और वन्यजीव संरक्षण के लिए वैश्विक महत्व रखता है। इसे 1985 में विश्व धरोहर स्थल के रूप में मान्यता दी गई थी, और यह राष्ट्रीय उद्यान, टाइगर रिजर्व, हाथी रिजर्व, बायोस्फीयर रिजर्व, और महत्वपूर्ण पक्षी क्षेत्र (आईबीए) के रूप में कई दर्जे रखता है।
मानस राष्ट्रीय उद्यान का इतिहास 1907 में शुरू होता है, जब इसे आरक्षित वन के रूप में घोषित किया गया था, जिसका उद्देश्य क्षेत्र की अद्वितीय वनस्पति और जीव-जंतुओं की रक्षा करना था। 1928 में, इसे खेल अभयारण्य का दर्जा दिया गया, जिसने वन्यजीवों के शिकार को विनियमित और नियंत्रित तरीके से करने की अनुमति दी।
1955 तक, इसका क्षेत्र 391 वर्ग किलोमीटर तक विस्तारित हो गया। 1973 में, इसे मानस टाइगर रिजर्व का कोर क्षेत्र बनाया गया, और 1990 में इसे राष्ट्रीय उद्यान का दर्जा दिया गया।
1985 में, इसे यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर स्थल के रूप में मान्यता दी गई, जो इसके असाधारण जैव विविधता और परिदृश्य के लिए थी।
पार्क का इतिहास चुनौतियों से भी भरा रहा है, विशेष रूप से 1980 और 1990 के दशक में, जब बोडोलैंड विद्रोह के कारण वन्यजीवों की संख्या में भारी कमी आई, जिसमें गैंडों की आबादी शून्य तक पहुंच गई। हाल के वर्षों में, संरक्षण प्रयासों ने पार्क को पुनर्जीवित किया है, जिसमें 2008 में गैंडों को पुनःस्थापित करने के लिए स्थानांतरण परियोजनाएं शामिल हैं।
मानस राष्ट्रीय उद्यान असम के चिरांग और बक्सा जिलों में फैला हुआ है, और भूटान के रॉयल मानस राष्ट्रीय उद्यान के साथ उत्तर में सीमा साझा करता है। इसका क्षेत्रफल 39,100 हेक्टेयर है, जो 283,700 हेक्टेयर के मानस टाइगर रिजर्व का हिस्सा है।
पार्क हिमालय की तलहटी में स्थित है, जहां वनाच्छादित पहाड़ियां, जलोढ़ घास के मैदान, और उष्णकटिबंधीय सदाबहार वन मिलते हैं। मानस और बेकी नदियां पार्क के माध्यम से बहती हैं, जो इसके विविध आवासों को आकार देती हैं।
पार्क में विभिन्न प्रकार के आवास शामिल हैं, जैसे भाबर सवाना, तेराई ट्रैक्ट, दलदली क्षेत्र, और नदी तट के वन। ये आवास मानसून और नदी प्रणालियों द्वारा बनाए गए हैं, जो पार्क की पारिस्थितिक विविधता को बनाए रखने में महत्वपूर्ण हैं।
हाल ही में, 2016 में पार्क का क्षेत्र 350 वर्ग किलोमीटर बढ़ाया गया, और बाघों की संख्या पिछले दशक में तीन गुना हो गई है, जो संरक्षण प्रयासों की सफलता को दर्शाता है।
मानस राष्ट्रीय उद्यान अपनी समृद्ध जैव विविधता के लिए प्रसिद्ध है, जिसमें 55 स्तनधारी प्रजातियां शामिल हैं, जिनमें से 31 भारत की सबसे संकटग्रस्त प्रजातियां हैं। प्रमुख प्रजातियां हैं –
बाघ
एक-सींग वाला गैंडा
दलदली हिरण
पिग्मी सूअर
सुनहरी लंगूर
जंगली भैंस
बादल तेंदुआ
स्लोथ भालू
हिस्पिड हरे
मानस राष्ट्रीय उद्यान में जीव-जंतु जंगली जल भैसों, एशियाई हाथी, बाघ, हिसपिड खरगोश, सुनहरा लंगूर, रूफ्ड कछुआ, इस राष्ट्रीय उद्यान में दुनिया में पिग्मी हॉग की एकमात्र आबादी वाला भाग है। पक्षियों के 380, स्तनधारियों के 55 तथा सरीसृपों के 50 प्रजातियाँ पाये जाते हैं।
पक्षियों की 380 प्रजातियां हैं, जिनमें 26 वैश्विक रूप से संकटग्रस्त हैं, जैसे बंगाल फ्लोरिकन। इसके अलावा, 42 सरीसृप प्रजातियां, 7 उभयचर प्रजातियां, और 400 जंगली चावल की किस्में पाई जाती हैं।
वनस्पति में विविधता भी समृद्ध है, जिसमें 89 वृक्ष प्रजातियां, 49 झाड़ियां, 37 उपझाड़ियां, 172 जड़ी-बूटियां, 36 लताएं, 15 ऑर्किड, 18 फर्न, और 43 घास प्रजातियां शामिल हैं। प्राथमिक वन प्रकारों में अर्ध-सदाबहार वन, मिश्रित नम और शुष्क पर्णपाती वन, और जलोढ़ घास के मैदान शामिल हैं।
वर्ष 2016 में, 350 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र पार्क में जोड़ा गया, जिसे पहली वृद्धि के रूप में जाना जाता है। बाघों की संख्या पिछले दशक में तीन गुना हो गई है, जो संरक्षण प्रयासों की सफलता को दर्शाता है।
2008 में, गैंडों को पुनःस्थापित करने के लिए एक स्थानांतरण परियोजना शुरू की गई, जिसमें पॉबिटोरा वन्यजीव अभयारण्य से दो गैंडों को मानस में लाया गया।
मानस राष्ट्रीय उद्यान एक नजर में
स्थान – असम, उत्तर-पूर्व भारत, हिमालय की तलहटी, भूटान के साथ उत्तर में सीमा
क्षेत्रफल – 950 वर्ग किलोमीटर (370 वर्गमील) 39,100 हेक्टेयर
मानस राष्ट्रीय उद्यान को यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर स्थल .कब घोषित किया – 1985
मानस राष्ट्रीय उद्यान कब बना (स्थापित) हुआ – 1990
मानस राष्ट्रीय उद्यान टाइगर रिजर्व कब बना – 2008
मानस राष्ट्रीय उद्यान कों बायोस्फीयर रिजर्व (राष्ट्रीय) का दर्जा कब मिला – 1989
मानस राष्ट्रीय उद्यान हाथी रिजर्व कब घोषित हुआ – 2003
भौगोलिक विशेषताएं – वनाच्छादित पहाड़ियां, जलोढ़ घास के मैदान, उष्णकटिबंधीय सदाबहार वन, मानस और बेकी नदियां
आवास प्रकार – भाबर सवाना, तेराई ट्रैक्ट, दलदली क्षेत्र, नदी तट के वन
वनस्पति – अर्ध-सदाबहार वन, मिश्रित नम और शुष्क पर्णपाती वन, जलोढ़ घास के मैदान, 89 वृक्ष प्रजातियां, 49 झाड़ियां, 37 उपझाड़ियां, 172 जड़ी-बूटियां, 36 लताएं, 15 ऑर्किड, 18 फर्न, 43 घास
वन्यजीव (स्तनधारी) – 60 प्रजातियां, 22 भारत की सबसे संकटग्रस्त उल्लेखनीय – बाघ, एक-सींग वाला गैंडा, दलदली हिरण, पिग्मी सूअर, सुनहरी लंगूर, जंगली भैंस
अन्य जीव – 42 सरीसृप प्रजातियां, 7 उभयचर, 500 पक्षी प्रजातियां (26 वैश्विक रूप से संकटग्रस्त), 400 जंगली चावल की किस्में
संरक्षण स्थिति – विश्व धरोहर स्थल, राष्ट्रीय उद्यान, टाइगर रिजर्व, बायोस्फीयर रिजर्व, हाथी रिजर्व, आईबीए
मानस राष्ट्रीय उद्यान (वन्यजीव अभ्यारण्य) भारत का 09वां विश्व धरोहर स्थल है जिसे यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल के रूप में निम्नलिखित मानदंड के तहत मान्यता दी गई है –
मानदंड (ix) मानस राष्ट्रीय उद्यान (वन्यजीव अभ्यारण्य) मानस बेकी प्रणाली यहाँ ये होकर बहने वाली प्रमुख नदी प्रणाली है और आगे चलकर ब्रम्हापुत्र नदी से मिलती है। मानस की वनस्पति में इसकी उच्च उर्वरता और शाकाहारी जानवारों द्वारा चराई के प्रतिक्रिया के कारण इसमें पुनर्जनन और आत्मनिर्भर क्षमताएं है।
मानदंड (x) मानस राष्ट्रीय उद्यान (वन्यजीव अभ्यारण्य) भारत के 22 सबसे अधिक खतरे वाली प्रजाजियों के लिए आवास प्रदान करता है। यह पार्क लगभग 60 स्तनधारी प्रजातियों, 380 पक्षी प्रजातियों (जिनमें 26 वैश्विक रूप से संकटग्रस्त हैं), 42 सरीसृप, और 7 उभयचर प्रजातियों का घर है। इसमें बाघ, एक-सींग वाला गैंडा, दलदली हिरण, पिग्मी सूअर, सुनहरी लंगूर, और जंगली भैंस जैसे दुर्लभ जानवर शामिल हैं। वनस्पति में 89 वृक्ष प्रजातियां, 49 झाड़ियां, और 43 घास प्रजातियां शामिल हैं।
मानस राष्ट्रीय उद्यान (वन्यजीव अभ्यारण्य) के साइट के संपत्ति का क्षेत्र 39,100 हेक्टेयर है।
मानस राष्ट्रीय उद्यान न केवल एक पर्यटक आकर्षण है, बल्कि यह वैश्विक जैव विविधता संरक्षण के लिए एक महत्वपूर्ण क्षेत्र है।

मोइदम (अहोम राजवंश की टीले दफनाने की प्रणाली)
मोइदम (अहोम राजवंश की टीले दफनाने की प्रणाली) पूर्वी असम में पटकाई पर्वतमाला की तलहटी में गुवाहटी से 400 किलोमीटर पूर्व में चराईदेव में स्थित ताई अहोम राजवंश का टीलानुमा संरचना में दफनाने वाला एक पारंपरिक शाही कब्रिस्तान है।
मोइदम ताई-अहोम शब्द फ्राँग-माई-डैम का संक्षिप्त रूप है। फ्रांग-माई का अर्थ है दफनाना और डैम का अर्थ है मृतक की आत्मा।
मुख्य रूप से राजा, रानी और गणमान्य लोगों के लिए बनाई गई थी। चराईदेव में लगभग 90 मोइदम हैं, जो पाटकाई पहाड़ियों के पास स्थित है।
मोइदम या मैदाम अहोम राजवंश (13 वीं से 19वीं शताब्दी) की मोइदम अहोम राजघराने और अभिजात वर्ग के कब्र के ऊपर बना मिट्टी का टीला है, चराईदेव में विषेष रूप से अहोम राजघरानों के मोइदम हैं, अभिजात वर्ग के प्रमुखों के अन्य मोइदम पूर्वी असम में, जोरहाट और डिब्रुगढ़ के शहरों के बीच के क्षेत्र में बिखरे हुए पाए जाते हैं।
दक्षिण चीन या म्यांमार से ताई भाषी लोग 1228 में असम आये और चाओलुंग सुकाफा द्वारा 1228 में असम की ब्रम्हपुत्र की घाटी में अहोम राजवंश की स्थापना की।
अहोम राजवंश के शासकों ने असम में एक शक्तिशाली साम्राज्य की स्थापना की जिसने लगभग 600 वर्षों तक ब्रम्हपुत्र घाटी पर शासन किया, जब तक कि 1826 ई. में अंग्रेजों ने असम पर कब्जा नहीं कर लिया।
असम के चराईदेव जिले में अहोम राजवंष के राजघरानों की टीला दफनाने की प्रणाली की तुलना प्राचीन चीन के शाही मकबरों और मिस्त्र के फराओं के पिरामिड़ों से की जा सकती है।
मोइदम की संरचना – होलो वाल्ट (टाक) ईंट, पत्थर या मिट्टी से बना, जिसमें अवशेष रखे जाते थे। अर्थ माउंड (गा-मोइदम) – वाल्ट को ढकने वाला मिट्टी का टीला। श्राइन (चौ चा ली) – टीले के शीर्ष पर एक मंदिर, जिसे मुंगक्लांग कहा जाता है, जो स्वर्ग और पृथ्वी के बीच मध्य स्थान का प्रतीक है।
पहले मृतक को उसके सामान के साथ दफना दिया जाता था, जैसे मोइदम के कक्षों के अंदर, मृत राजा को उसके मृत्यु के बाद के लिए आवश्यक वस्तुओं के साथ-साथ नौकरों, घोड़ों, मवेशियों, तम्बाकू, चूने के साथ मिट्टी के बर्तन और यहाँ तक उनकी पत्नियों के साथ दफनाया जाता था।
यह अहोम दफन संस्कारों की प्राचीन मिस्त्रियों के संस्कारों की समानता है जो चराईदेव मोइदम के असम के पिरामिड का नाम देती है।
18वीं शताब्दी के बाद अहोम शासकों ने दाह संस्कार की हिन्दु पद्धति को अपना लिया तथा दाह संस्कार के बाद बची हुई हड्डियों और राख को चराईदेव स्थित मोइदम में दफनाया जाने लगा।
मोइदम का बाहरी अग्रभाग आमतौर पर अर्धगोलाकार होता है।
वर्तमान में मोइदम पर्यटकों के लिए मुख्य आकर्षण हैं, चराईदेव में लगभग 90 बड़े और छोटे मोइदम हैं, लेकिन इनमें से सिर्फ 30 को ही भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा संरक्षित किया गया है और इनमें से कई की हालात बहुत खराब है।
मोइदम अहोम राजवंश की टीला दफनाने की प्रणाली 600 साल पुरानी ताई अहोम शाही कब्रिस्तान का एक उत्कृष्ट उदाहरण के साथ वास्तुकला और और 13वीं से 19वीं शताब्दी ई. तक सांस्कृतिक परंपराओं का रीति रिवाजों का प्रमाण है।
मोइदम भारत की 43वां विश्व धरोहर स्थल है जिसे यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल के रूप में निम्नलिखित मानदंडों के तहत मान्यता दी गई है
मानदंड (iii) ताई अहोम की 600 सालों की शाही संस्कार वास्तुकला, रीति-रिवाजों और सांस्कृतिक परंपराओं का गवाह।
मानदंड (iv) ताई अहोम कब्रगाह का उत्कृष्ट उदाहरण जो उनकी अंतिम संस्कार पंरपराओं और ब्रम्हाण्ड विज्ञान को दर्शाता है।
वर्ष 2024 में यूनेस्को ने मोइदम (अहोम राजवंश की टीले दफनाने की प्रणाली) को विश्व धरोहर स्थलों की सूची में शामिल किया गया है।
असम के मोइदम के कुल 96.5 हेक्टेयर के रूप में 793.7 हेक्टेयर बफर जोन के साथ शामिल किया गया है।
सांस्कृतिक श्रेणी में यह पूर्वोत्तर राज्य तथा असम का पहला सांस्कृतिक है।
अहोम राजवंश के मोइदम असम की समृद्ध सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत का एक अनमोल हिस्सा है।
कर्नाटक के सभी विश्व विरासत (धरोहर) स्थल UNESCO World Heritage Sites in Karnataka
हम्पी में स्मारकों का समूह वर्ष 1986 (सांस्कृतिक स्थल)
पट्टाडकल में स्मारकों का समूह वर्ष 1987 (सांस्कृतिक स्थल)
होयसल के पवित्र समूह वर्ष 2023 (सांस्कृतिक स्थल)
हम्पी में स्मारकों का समूह
हम्पी में स्मारकों का समूह – हम्पी, कर्नाटक के विजयनगर जिले में तुंगभद्रा नदी के किनारे स्थित है। यह हिंदू धर्म के अंतिम महान राज्यों में से एक, विजयनगर साम्राज्य की राजधानी थी, जो अपनी समृद्धि और वास्तुशिल्प के लिए जानी जाती थी। यह 4187.24 हेक्टेयर में फैला है।
यह क्षेत्र तुंगभद्रा बेसिन में स्थित है और इसमें किले, नदी के किनारे की विशेषताएं, राजकीय और पवित्र परिसर, मंदिर, मंडप, स्मारक संरचनाएं, प्रवेश द्वार, रक्षा चौकियां, अस्तबल और जल संरचनाएं शामिल हैं।
हम्पी तुंगभद्रा नदी के पुराने नाम पम्पा से लिया गया है हम्पी नाम कन्नड़ नाम हम्पे का अंग्रेजी नाम से संबंधित है।
हम्पी स्मारक समूह को 1986 में यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल घोषित किया गया था।
हम्पी 14वीं से 16वीं सदी तक विजयनगर साम्राज्य की राजधानी थी। जो 14वीं से 16वीं सदी तक फली-फूली थी।
यह द्रविड, चालुक्य और होयसल़ शैली के मंदिरों और महलों के लिए प्रसिद्ध है, जिसमें 1600 से अधिक स्मारक हैं और यह 41.5 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है।
हम्पी के मुख्य स्मारक
विरुपाक्ष मंदिर – सबसे पुराना मंदिर, मुख्य तीर्थस्थल, अभी भी हिंदू पूजा के लिए सक्रिय है।
पवित्र केंद्र, पूर्व की ओर मुख, 50 मीटर ऊंचा गोपुरम, मठ, मन्मथा टैंक, 750 मीटर बाजार शामिल है।
मंदिर के गर्भगृह में एक मुखलिंग हैं, पीतल से उभरा हुआ चेहरा वाला शिवलिंग है।
100-स्तंभों वाला हॉल, हॉल से जुड़ी हुई सामुदायिक रसोईघर है।
विट्ठल मंदिर – पत्थर की रथ और पत्थर के स्तंभों के लिए प्रसिद्ध है।
विट्ठल (कृष्ण) को समर्पित, कला की दृष्टि से परिष्कृत, पवित्र केंद्र का हिस्सा
विरुपाक्ष मंदिर से 3 किमी उत्तर-पूर्व, तुंगभद्रा नदी के पास, पत्थर का रथ (गरुड़ मंदिर) शामिल है।
इसका निर्माण 16वीं सदी की शुरुआत-मध्य माना जाता है।
पत्थर का रथ, 56 नक्काशीदार पत्थर के बीम, करक्कोइल शैली वाला है।
विठ्ठल मंदिर के आसपास के क्षेत्र को विठ्ठपुर कहा जाता है।
हेमकूट पहाड़ी स्मारक
हेमकूट पहाड़ी स्मारक उत्तर में विरूपाक्ष मंदिर परिसर और दक्षिण में कृष्ण मंदिर के पास स्थित है।
हेमकूट पहाड़ी में दो अखंड गणेश के प्रतिमाएं भी है। कडालेकालु गणेश (4.5 मीटर ऊंचा), सासिवेकालु गणेश (2.4 मीटर ऊंचा) है।
हजारा राम मंदिर – राजपरिवार के लिए समारोहिक मंदिर, रामायण की कहानियों से सजी दीवारें।
यह मंदिर 15वीं सदी की शुरुआत का है। इसका निर्माण देवराय प्रथम द्वारा करवाया गया है।
बाहरी दीवारें महानवमी और होली प्रक्रियाओं को चित्रित हैं, आंतरिक दीवारें रामायण का वर्णन करती हैं।
कोडंडराम मंदिर
तुंगभद्रा नदी के पास स्थित है और अच्युताराय मंदिर के उत्तर में है।
राम, सीता, लक्ष्मण, हनुमान को समर्पित एक गर्भगृह है, चक्रतीर्थ के पास, घाट और स्नान के लिए मंडप शामिल है।
चट्टान के चेहरे पर अनंतशयन विष्णु की राहतें हैं। नरसिंह और प्रह्लाद नदी के पास एक चट्टान जिस पर 1,008 लिंग अंकित है।
पट्टाभिराज मंदिर परिसर
यह हम्पी संग्रहालय से लगभग 500 मीटर की दूरी पर स्थित है।
16वीं शताब्दी की शुरूआत में बनाया गया और राम को समर्पित है। पट्टाभिराम मंदिर में 100 स्तंभों वाला एक हॉल शामिल है।
अच्युतराय मंदिर
अच्युतराय मंदिर जिसे तिरूवेंगलनाथ मंदिर भी कहा जाता है। विरुपाक्ष मंदिर से 1 किमी पूर्व मंे तुंगभद्रा नदी के पास स्थित है।
शिलालेखों में इसका उल्लेख अच्युतपुरा किया गया है और इसका समय 1534 ई. है।
यह हम्पी के 04 सबसे बड़े परिसरों में से एक है।
मंदिर के बाहरी गोपुरम में 100-स्तंभ हॉल के आंगन में जाता है एक आंतरिक विष्णु मंदिर की ओर जाता था।
महानवमी मंच
महानवमी मंच शाही केन्द्र के अंदर सबसे ऊँचे भाग पर एक 19 एकड़ के घेरे में है। इसे विजय का घर कहते हैं।
मंच के दो निचले स्तर ग्रेनाइट से निर्मित हैं। बड़े मंच के पास एक दर्शक हॉल है। परिसर में एक बड़ा पानी का पुल है।
इसके अलावा, हम्पी में कई अन्य स्मारक और संरचनाएं हैं, जैसे कि रानी का स्नानघर, हाथी अस्तबल, और पुष्करणी (पवित्र जलाशय)।
गनगिट्टी जैन मंदिर
हम्पी शहर के दक्षिण-पूर्व में भीम के द्वार के पास स्थित है। इसके सामने एक अखंड दीप स्तंभ है।
यह तीर्थंकर कुंथुनाथ को समर्पित है।
इसका निर्माण 1385 ई. में हरिहर द्वितीय के शासनकाल के समय का है।
अहमद खान मस्जिद और मकबरा
शहरी कोर के दक्षिण-पूर्व में तुरुत्तु नहर से पहले एक मुस्लिम स्मारक है। इस स्मारक का निर्माण 1439 ई. में अहमद खान द्वारा बनाया गया है।
स्मारक में एक मस्जिद, एक अष्टकोणीय कुआं और एक मकबरा शामिल है। मस्जिद में गुंबद नहीं है। मकबरे में गुंबद और मेहराब हैं।
इन स्मारकों के अलावा, क्षेत्र में कई अन्य संरचनाएं हैं, जैसे कि किले, रक्षा चौकियां, और जल प्रबंधन प्रणालियां, जो इसकी समग्र योजना को दर्शाती हैं।
हम्पी को तीन मानदंडों के तहत विश्व धरोहर स्थल के रूप में मान्यता दी गई है
यह एक अद्वितीय कला सृजन है, जो नियोजित शहर, मंदिर वास्तुकला और प्राकृतिक एकीकरण दर्शाता है।
यह विजयनगर सभ्यता के लुप्त हो चुके युग का असाधारण साक्ष्य प्रदान करता है, विशेष रूप से कृष्णदेव राय के शासनकाल में।
यह 1565 सीई में तालिकोटा की लड़ाई के विनाश को दर्शाने का एक उत्कृष्ट उदाहरण है, जिसमें जीवित मंदिर और पुरातात्विक अवशेष शामिल हैं।
स्मारकों का निर्माण स्थानीय ग्रेनाइट, जलाए गए ईंटों, और चूना मोर्टार से किया गया है। पत्थर की मेसनरी और लालटेन छत वाली पोस्ट और लिंटल प्रणाली का उपयोग किया गया है। किलेबंदी की दीवारें अनियमित कटे हुए पत्थरों और रूबल मेसनरी से बनी हैं।
हम्पी में स्मारकों का समूह भारत का 12वां विश्व धरोहर स्थल है जिसे यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल के रूप में निम्नलिखित मानदंडों के तहत मान्यता दी गई है –
(i) योजनाबद्ध और संरक्षित हम्पी शहर के बीच इसकी मंदिर वास्तुकला और प्राकृतिक परिवेश के साथ एक अद्वितीय कलात्मक सृजन का प्रतिनिधित्व करता है।
(iii) यह शहर विजयनगर साम्राज्य की लुप्त सभ्यता का असाधारण साक्ष्य हैं।
(iv) यह राजधानी एक प्रकार की संरचना का एक उत्कृष्ट उदाहरण के साथ महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थिति को दर्शाती है।
यूनेस्को ने इसे 1986 में विश्व धरोहर स्थल की सूची में शामिल किया है।
हम्पी स्मारक समूह साइट के संपत्ति का क्षेत्र 4187.24 हेक्टेयर है, जिसमें बफर जोन 19453.62 हेक्टेयर है।
हम्पी स्मारक समूह न केवल भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का प्रतीक है, बल्कि विश्व स्तर पर भी एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थल है। यहाँ की वास्तुकला, इतिहास और स्मारकों की भव्यता इसे पर्यटकों और इतिहास प्रेमियों के लिए एक आकर्षक गंतव्य बनाती है।

पट्टाडकल में स्मारकों का समूह
पट्टाडकल में स्मारकों का समूह – पट्टाडकल (पट्टकल) कर्नाटक राज्य के बागलकोट जिले में मालप्रभा नदी के पश्चिमी तट पर बादामी से 23 किलोमीटर और ऐहोल से 10 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह 7वीं और 8वीं शताब्दी के हिंदू और जैन मंदिरों का एक परिसर है।
पट्टकल के मंदिरों का निर्माण उत्तर भारत के रेखा नागर प्रसाद और दक्षिण भारत के द्रविड़ विमान स्थापत्य शैली के मिश्रण को दर्शाते हैं।
द्राविड़ शैली – ऊँचे विमान (गुंबदाकार शिखर) और गर्भगृह के चारों ओर प्रकोष्ठ।
नागर शैली – शिखर के ऊपर एक ऊँचा शिखर और जटिल नक्काशी।
पट्टडकल का शब्दिक अर्थ है राज्याभिषेक पत्थर। मंदिर की संरचना बलुआ पत्थरों से बनाई गई हैं। कुछ मूर्तियाँ के काले ग्रेनाइड से बनाय गया है। यहाँ से 10 मंदिर मिले हैं। जिनमें 09 हिंदू मंदिर सभी शिव को समर्पित है। मंदिरों में 4 चालुक्य द्रविड़, 04 उत्तरी भारत की नागर शैली में जबकि पापनाथ मंदिर दोनों का मिश्रण है।
इन मंदिरों में संगमेश्वर सबसे पुराना मंदिर है। जिसे विजयादित्य सत्यश्रया के शासनकाल के दौरान 697-733 ई. के बीच बनाया गया था। पट्टकल की सबसे बड़ा मंदिर विरूपाक्ष मंदिर है, जिसे 740-745 ई. के बीच बनाया गया था।
स्मारक समूह में निर्मित अंतिम मंदिर जैन मंदिर है जिसे जैन नारायण मंदिर के नाम से जाना जाता है। जिसे 09वीं शताब्दी में राष्ट्रकूट वंश के कृष्ण द्वितीय के शासनकाल के समय बनाया गया था।
इस मंदिर की शैली कांचीपुरम के कैलाशनाथ मंदिर के समान है।
उत्तरी एवं 6 दक्षिण शैली में निर्मित हैं। पापनाथ का मंदिर, विरूपाक्ष मंदिर तथा संगमेश्वर के मंदिर विषेष रूप से उल्लेखनीय है।
पट्टाडकल के मंदिर
कडासिद्धेश्वर मंदिर – 7वीं-08वीं शताब्दी में निर्मित इस मंदिर में पीठ पर एक शिवलिंग, त्रिकास्थि केन्द्र के चारों ओर एक मंडप है। गर्भगृह के प्रवेश द्वार पर एक चौखट में शिव पार्वती विराजमान हैं जिनके दोनों ओर ब्रम्हा और विष्णु की नक्काशी हैं। गर्भगृह के प्रवेश द्वार पर नंदी विराजमान हैं। बाहरी दीवारों पर उत्तर दिशा में अर्धनारीश्वर, पश्चिम दिश में हरिहर, दक्षिण दिश में लकुलीशा की प्रतिमाएँ हैं। इसका शिखर उत्तरी शैली (रेखा नगर) की है।
जम्बुलिंगेश्वर मंदिर – 7वीं-08वीं शताब्दी में निर्मित इस मंदिर को जम्बुलिंग मंदिर भी कहा जाता है। मंदिर के शिखर पर पार्वती और नंदी के साथ नृत्य करते शिव नटराज उत्कीर्ण हैं। इस मंदिर के उत्तर में विष्णु, पश्चिम में सूर्य और दक्षिण दिश में लकुलीशा की प्रतिमाएँ हैं। चबूतरा पक्षियों और अन्य सजावटी आकृतियों से सजाया गया है। इसका भी शिखर उत्तरी शैली (रेखा नगर) की है।
गलगनाथ मंदिर – 08वीं शताब्दी में निर्मित इस मंदिर के गर्भगृह में शिवलिंग तथा मंदिर के बाहर एक बैठा हुआ नंदी है जो गर्भगृह की ओर मुंह करके विराजमान हैं। इसका अधिकांश नष्ट हो चुकी है दक्षिण भाग के जिसमें नक्काशीदार स्लैब में आठ भुजाओं वाले शिव को अंधका का वध करते हुए दिखा गया है। प्रदक्षिणपथ तीन तरफ से बंद है। गर्भगृह के प्रवेश द्वार पर नदी देवियाँ और चौखट पर षिव नटराज की नक्काशी से उत्कीर्ण है। उत्तरी शैली में विकसित संरचना है।
चंद्रशेखर मंदिर – 08वीं शताब्दी में निर्मित एक छोटा पूर्वमुख मंदिर है गर्भगृह के ऊपरी हिस्से पर कोई और संरचना नहीं है। मंदिर में शिव लिंग तथा लिंग के सामने एक नंदी विराजमान हैं। द्वारपाल मंदिर के प्रवेश द्वार के दोनों ओर विद्यमान हैं।
विरूपाक्ष मंदिर – मल्लिकार्जुन मंदिर के दक्षिण में स्थित विरूपाक्ष का मंदिर सर्वाधिक सुंदर एवं आकर्षक है। इसका निर्माण रानी लोकमहादेवी द्वारा अपने पति (राजा विक्रमादित्य द्वितीय) की दक्षिण से पल्लव राजाओं परजित की याद में 740 के आसपास बनाया गया था। इसे सबसे उत्कृष्ट वास्तु शिल्प भवन माना जाता है (यह हम्पी के विरुपाक्ष मंदिर से अलग है)
विरूपाक्ष मंदिर में गर्भगृह में शिवलिंग जो एक ढके हुए परिक्रमा पथ से घिर है। मंदिर के सामने नंदिमण्डप चारों ओर वेदिका तथा एक तोरणद्वार बना है। बाहरी दीवार में बने ताखों में शिव, नाग, सूर्य, हारा गौरी आदि की मूर्तियाँ से सुशेभित हैं तथा रामायण, महाभारत के दृष्यों को उत्कीर्ण किया गया है। खांचों में जालीदार खिड़कियाँ है। गर्भगृह के सामने एक अंतराल में दो छोटे मंदिर हैं जिसमें एक महिषासुरमर्दिनी का और दूसरा गणेशजी का है। प्रवेश द्वार 18 स्तंभों वाले मंडप की ओर जाता है। विरूपाक्ष मंदिर के गर्भगृह के ऊपरी हिस्सा 03 मंजिला है। मंदिर में ऐतिहासिक महत्वपूर्ण शिलालेख हैं जो 8वीं शताब्दी के तत्कालीन भारतीय समाज और संस्कृति से अवगत करते हैं।
पापनाथ मंदिर – यह मंदिर 08 मुख्य समूह से अलग स्थित है। विरूपाक्ष मंदिर से आधा किलोमीटर की दूरी पर है जिसे लगभग 08वीं शताब्दी को चालुक्य शासन काल में बनाया गया था। यह इकलौता मंदिर द्रविड़ और नागर शैली में बना हुआ मंदिर है। मंदिर लंबा है, दो मंडप से परस्पर जुड़े हैं जिसमें एक में 16 और दूसरे में 4 खंभे हैं। मंदिर पूर्वमुखी है और इसके गर्भगृह में शिवलिंग है, इसके यहाँ कोई नंदी मंडप नहीं है गर्भगृह की ओर मुख करके सभा मंडप में नंदी की छवि स्थापित है। छत के बीच में नटराज की प्रतिमा, अन्य छतों पर विष्णु की छवियाँ हैं। बाहर मंडपों में प्रेमालाप और मिथुन के विभिन्न चरणों की छवियाँ हैं।
त्रिलोकश्वर (मल्लिकार्जुन) मंदिर – 8वीं शताब्दी के मध्य रानी त्रैलोक्यमहादेवी द्वारा निर्मित यह शिव मंदिर है। मंदिर दक्षिण भारतीय विमान शैली की वास्तुकला को दर्शाता है। इसके गर्भगृह में एक शिवलिंग, नंदी मंडप विराजमान है। यह मंदिर विरूपाक्ष मंदिर के समान है। नटराज का चित्रण शुकनासा के उथले मेहराब में स्थापित है।
काशी विश्वनाथ मंदिर – काशी विश्वेश्वर के नाम से जाने जाना वाला यह पट्टाडकर के छोटे मंदिरों में से एक है। मंदिर 07वीं और 08वी शताब्दी के मध्य बनाया गया था। मंदिर का मूल चौकोर गर्भगृह है जिसमें एक शिवलिंग स्थापित है। गर्भगृह के पूर्व में एक नंदी मंडप का ढाला हुआ मंच है जिसमें नंदी विराजमान है। मंदिर के प्रवेश द्वार पर गंगा और यमुना पर उकेरी गई हैं। मंदिर के उत्तरी दीवार पर अर्धनारीश्वर और लकुलीष की मूर्तियाँ से सुसज्जित है। इसके आमलक और कलश वर्तमान में नहीं है। मंदिर के अंदर भागवत पुराण, शिव पुराण और रामायण को दर्शाया गया है।
संगमेश्वर (विजयेश्वर) मंदिर – पट्टकल यह सबसे पुराना मंदिर है। जिसे विजयादित्य सत्याश्रय ने 697-730 ई. के मध्य बनवाया था। यह मंदिर चौकोर है जिसमें पूर्व की ओर गर्भगृह है, प्रदक्षिण पथ जिसमें 03 नक्काशीदार खिड़कियाँ हैं। गर्भगृह में एक शिवलिंग पूर्व में नंदी विराजमान है। मंदिर के दीवारों में विष्णु और शिव की छवियों के साथ उकेरी कई देवकोष्ठ हैं।
जैन नारायण मंदिर – पट्टाडकल में जैन मंदिर 09वीं शताब्दी के दौरान राष्ट्रकूट राजा कृष्ण द्वितीय या कल्याणी चालुक्यों के द्वारा निर्मित किया गया था। 03 मंजिला मंदिर के चौकारे गर्भगृह में पार्ष्वनाथ की एक प्रतिमा है। इस मंदिर के उत्तर की ओर कपोत छत पर एक जिन की मूर्ति की नक्काशी की गई है। हिंदू मंदिरों के समान एक चौकोर गर्भगृह, एक परिक्रमा पथ, एक प्रवेश द्वार, एक मंडप और एक बरामदा है। इसकी संरचना दक्षिण विमान शैली में बनाई गई है।
पट्टाडकल चालुक्यों की मूर्तिकला की विशेषता, सुंदरता का विवरण है। विभिन्न स्थापत्य शैलियों का प्रयोग और नवाचार करने तथा उसे नये आयाम दिया।
पट्टाडकल के सभी मंदिरों में स्तूप के आकार के शिखर निर्मित हैं तथा उनमें कई तल्ले हैं, प्रत्येक तल्ले में मूर्तियों उत्कीर्ण हैं, मंदिर पूर्णतया पाषाण निर्मित हैं यहाँ के मंदिर उत्तरी और दक्षिण भारत की वास्तुकला के बीच की कड़ी है।
पट्टडकल भारत का 15वां विश्व धरोहर स्थल है जिसे यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल के रूप में निम्नलिखित मानदंडों के तहत मान्यता दी गई है –
मानदंड (iii) यह चालुक्य राजवंश की सांस्कृतिक परंपराओं का साक्ष्य है।
मानदंड (iv) यह मंदिर वास्तुकला का एक उत्कृष्ट उदाहरण है, जो मानव इतिहास में एक महत्वपूर्ण चरण, विशेष रूप से उत्तर और दक्षिण भारतीय शैलियों के मिश्रण को दर्शाता है।
पट्टाडकल मंदिरों के इन समूह के 5.56 हेक्टेयर और 113.48 हेक्टेयर बफर जोन को वर्ष 1987 में यूनेस्को ने वास्तुकला, स्मारक कला, सांस्कृतिक परंपरा, सभ्यता के साक्ष्य के लिए भारत के विष्व धरोहर की सूची में शामिल किया है।
पट्टाडकल का स्मारक समूह चालुक्य राजवंश की वास्तुशिल्प और सांस्कृतिक विरासत का एक अनमोल खजाना है।

होयसल के पवित्र समूह
होयसल के पवित्र समूह में कर्नाटक के बेलूर, हालेबिद और सोमनाथपुर में स्थित तीन मंदिर शामिल हैं – चेन्नाकेशव मंदिर, होयसलेस्वर मंदिर और केशव मंदिर।
इन्हें 2023 में यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल घोषित किया गया था, जो भारत का 42वां विश्व धरोहर स्थल है।
ये मंदिर होयसल वास्तुकला का उत्कृष्ट उदाहरण हैं, जिसमें तारामय योजना और नक्काशीदार पत्थर की मूर्तियाँ शामिल हैं।
अप्रत्याशित रूप से, ये मंदिर न केवल धार्मिक महत्व रखते हैं, बल्कि रामायण, महाभारत और भगवत पुराण की कहानियों को दर्शाने वाली मूर्तियों के माध्यम से सांस्कृतिक इतिहास भी प्रस्तुत करते हैं।
होयसल के पवित्र समूह में बेलूर का चेन्नाकेशव मंदिर, हालेबिद का होयसलेस्वर मंदिर और सोमनाथपुर का केशव मंदिर शामिल हैं। ये मंदिर कर्नाटक में स्थित हैं और होयसल साम्राज्य (10वीं से 14वीं शताब्दी) की वास्तुशिल्प विरासत का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन्हें 2023 में यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल के रूप में मान्यता दी गई, जो इनकी सांस्कृतिक और वास्तुशिल्प महत्व को दर्शाता है।
चेन्नाकेशव मंदिर, बेलूर – इसे 1117-1150 ईस्वी में राजा विष्णुवर्धन द्वारा बनवाया गया था, जो होयसल साम्राज्य के शासक थे। यह भगवान विष्णु को समर्पित है और उनकी जीत का प्रतीक है।
होयसलेस्वर मंदिर, हालेबिद – इसे 12वीं शताब्दी में राजा नरसिंह प्रथम द्वारा बनवाया गया था और भगवान शिव को समर्पित है। यह दो संतुमों वाला है और 14वीं शताब्दी में बहमनी सुल्तानत द्वारा आंशिक रूप से नष्ट कर दिया गया था।
केशव मंदिर, सोमनाथपुर – इसे 1268 ईस्वी में सोमा दंडनायक, राजा नरसिंह तृतीय के सेनापति, द्वारा बनवाया गया था और भगवान विष्णु को समर्पित है। यह तीन संतुमों वाला है और अच्छी तरह से संरक्षित है।
होयसल के पवित्र समूह, जो आधिकारिक रूप से ष्सैक्रेड एन्सेम्बल्स ऑफ द होयसल्सष् के रूप में जाना जाता है, में कर्नाटक, भारत में तीन उल्लेखनीय मंदिर शामिल हैंरू बेलूर का चेन्नाकेशव मंदिर, हालेबिद का होयसलेस्वर मंदिर, और सोमनाथपुर का केशव मंदिर।
होयसल वंश, जो 10वीं से 14वीं शताब्दी तक शासन किया, कला और वास्तुकला के संरक्षक थे। इस वंश की स्थापना साला ने की थी, जिन्होंने एक बाघ को हराने की किंवदंती से प्रसिद्धि पाई, जो कई मंदिरों में चित्रित है।
होयसल साम्राज्य पदपजपंससल चालुक्य वंश के अधीन था, लेकिन बाद में स्वतंत्र हो गया और वर्तमान कर्नाटक, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश के हिस्सों पर शासन किया। इन मंदिरों का निर्माण साम्राज्य के चरम पर हुआ और ये उनकी समृद्धि और कलात्मक स्वाद का प्रतीक हैं।
होयसल मंदिर अपनी तारामय (स्टेलेट) योजनाओं के लिए प्रसिद्ध हैं, जो अन्य दक्षिण भारतीय मंदिरों की वर्गाकार या आयताकार योजनाओं से भिन्न हैं। ये मंदिर ऊंचे प्लेटफॉर्म पर बनाए गए हैं और एक केंद्रीय हॉल के चारों ओर कई संतुम हैं। इनका निर्माण नरम साबुन पत्थर (सोपस्टोन) से किया गया, जो विस्तृत नक्काशी के लिए उपयुक्त था और आज भी अच्छी तरह से संरक्षित है।
नक्काशी में हिंदू देवी-देवताओं, पौराणिक कथाओं, जानवरों और दैनिक जीवन की दृश्यों को दर्शाया गया है। यह शैली द्रविड़ और नागर वास्तुशिल्प परंपराओं का मिश्रण है, जो दक्षिण और उत्तर भारत दोनों से प्रभावित है।
इन मंदिरों को उनकी अद्वितीय वास्तुशिल्प शैली और उच्च गुणवत्ता वाली पत्थर की नक्काशी के लिए उत्कृष्ट सार्वभौमिक मूल्य माना जाता है। वे दक्षिण भारत में हिंदू मंदिर वास्तुकला के विकास के एक महत्वपूर्ण चरण का प्रतिनिधित्व करते हैं।
मंदिरों का विवरण
- चेन्नाकेशव मंदिर, बेलूर
निर्माण – 1117-1150 ईस्वी, राजा विष्णुवर्धन द्वारा
समर्पित – भगवान विष्णु (चेन्नाकेशव, कृष्ण का दूसरा नाम)
विशेषताएँ – विस्तृत पत्थर की नक्काशी, जिसमें प्रसिद्ध दर्पण सुंदरी और शिलाबालिका शामिल हैं। एक किंवदंती है कि मूर्तिकार जकनाचारी ने इस मंदिर का निर्माण किया और उनकी मूर्ति मंदिर परिसर में है।
- होयसलेस्वर मंदिर, हालेबिद
निर्माण – 12वीं शताब्दी, राजा नरसिंह प्रथम द्वारा
समर्पित – भगवान शिव
विशेषताएँ – दो संतुम, एक शिव और दूसरा पार्वती के लिए; रामायण, महाभारत और अन्य हिंदू शास्त्रों की कहानियों को दर्शाने वाली नक्काशी। 14वीं शताब्दी में बहमनी सुल्तानत द्वारा आंशिक रूप से नष्ट, कुछ हिस्से खंडहर में हैं।
- केशव मंदिर, सोमनाथपुर
निर्माण – 1268 ईस्वी, सोमा दंडनायक द्वारा
समर्पित – भगवान विष्णु (जनार्धन, वेणुगोपाल और केशव)
विशेषताएँ – तीन संतुम, हाथियों, घोड़ों और अन्य जानवरों की अच्छी तरह से संरक्षित नक्काशी। यह होयसल वास्तुकला का सबसे अच्छा संरक्षित उदाहरण माना जाता है।
होयसल के पवित्र समूह भारत का 42वां विश्व धरोहर स्थल है जिसे यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल के रूप में निम्नलिखित मानदंडों के तहत मान्यता दी गई है
मानदंड (i) होयसल के पवित्र समूह के मंदिर वास्तुकला, और नक्काशी मानवीय रचनात्मक का एक शानदार उदाहरण है।
मानदंड (ii) होयसल वास्तुकला ने दक्षिण भारत में मंदिर निर्माण पर लंबे समय तक प्रभाव डाला, जिसमें नागर और द्रविड़ शैलियों का मिश्रण शामिल हैं।
मानदंड (iv) ये मंदिर 12वीं और 13वीं शताब्दी के होयसल साम्राज्य की सांस्कृतिक और धार्मिक परंपराओं का उत्कृष्ट उदाहरण है।
होयसल के पवित्र समूह साइट के संपत्ति का क्षेत्र 10.47 हेक्टेयर है, जिसमें बफर जोन 195.87 हेक्टेयर है।
इन्हें 2023 में यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल के रूप में मान्यता दी गई, जो भारत का 42वां विश्व धरोहर स्थल है।
यह मान्यता इन मंदिरों की वास्तुशिल्प और सांस्कृतिक महत्व को दर्शाती है, जो होयसल साम्राज्य की विरासत का प्रतिनिधित्व करते हैं।
होयसल के पवित्र समूह के मंदिर भारत की समृद्ध सांस्कृतिक और वास्तुशिल्प विरासत का प्रतीक हैं।