यूनेस्को (UNESCO) की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत सूची 2003 कन्वेंशन के तहत् बनाई गई है, जो जीवंत परंपराओं, कौशलों, अभिव्यक्तियों और ज्ञान को संरक्षित करती है जो पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती हैं।
यह सूची मौखिक परंपराओं, प्रदर्शन कला, सामाजिक प्रथाओं/अनुष्ठानों/त्योहारों, प्रकृति/ब्राम्हांड के ज्ञान और पारंपरिक शिल्पकाल जैसे क्षेत्रों को शामिल करती है।
अमूर्त सांस्कृतिक विरासत (Intangible Cultural Heritage – ICH)
वे प्रथाएं, अभिव्यक्तियाँ, ज्ञान, कौशल और इससे जुड़ी वस्तुएँ, स्थान और परम्पराएँ हैं, जिन्हें समुदाय, समूह या व्यक्ति अपनी सांस्कृतिक पहचान के हिस्से के रूप में मानते हैं।
यह विरासत मूर्त रूप में नहीं होती, जैसे स्मारक या इमारतें, बल्कि यह मौखिक परम्पराओं, प्रदर्शन कलाओं, सामाजिक रीतियों, प्रकृति से जुड़े ज्ञान और पारम्परिक शिल्पकला जैसे क्षेत्रों में शामिल होती हैै।
यूनेस्को के अनुसार, यह विरासत पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती है और समुदायों द्वारा निरन्तर पुनर्निर्मित की जाती है, जो उनकी पहचान, विविधता और सतत् विकास को मजबूत करती है।
यह समुदायों की स्मृति को संरक्षित रखती है, पहचान को मजबूत करती है और पीढ़ियों को जोड़ती है। इसमें शमिल तत्व समावेशी प्रतिनिधि और समुदाय आधारित होने चाहिए।
वर्तमान में 157 देशों से लगभग 849 तत्व अमूर्त सांस्कृतिक धरोहरों की सूची में शामिल हैं। इसका उद्देश्य वैश्विकरण और संघर्षों के बीच सांस्कृतिक विविधता को बनाए रखना है।
अमूर्त सांस्कृतिक विरासत प्रमुख क्षेत्र
- मौखिक परंपराएँ और अभिव्यक्तियाँ – जैसे लोककथाएँ, गीत और भाषाएँ
- प्रदर्शन कलाएँ – जैसे नृत्य, नाटक और संगीत
- सामाजिक प्रथाएँ – अनुष्ठान और उत्सव (जैसे त्योहार और रस्में)
- प्रकृति और ब्रह्मांड से संबंधित ज्ञान और प्रथाएँ
- पारंपरिक शिल्प कौशल
अमूर्त सांस्कृतिक विरासत सांस्कृतिक विविधता को बनाए रखने में महत्वपूर्ण है और वैश्वीकरण के दौर में इसे सुरक्षित करना आवष्यक है। यूनेस्को द्वारा वर्ष 2003 में अपनाए गए कन्वेंशन के तहत इसकी सुरक्षा की जाती है, जो समुदायों को अपनी विरासत को पहचानने और संरक्षित करने में मदद करता है।
भारत को पहली बार वर्ष 2008 में यूनेस्को अमूर्त सांस्कृतिक विरासत सूची में शामिल किया गया था। वर्ष 2008 में तीन सांस्कृतिक विरासत को जोड़ा गया था।
भारत की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत (Intangible Cultural Heritage) यूनेस्को द्वारा मान्यता प्राप्त विभिन्न प्रकार की परंपराएं, प्रदर्शन कलाएं, मौखिक परंपराएं, त्योहार और शिल्प शामिल हैं, जो देश की विविध सांस्कृतिक पहचान को दर्शाती हैं।
यूनेस्को द्वारा मान्यता प्राप्त ये तत्व मानवता की प्रतिनिधि सूची (Representative List) में शामिल हैं।
भारत में वर्तमान में (दिसंबर 2025 तक) 16 ऐसी विरासतें हैं, जो यूनेस्को की सूची में शामिल हैं।
भारत के सभी यूनेस्को अमूर्त सांस्कृतिक विरासत की सूची
| क्रमांक | भारत की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत | श्रेणी/प्रकार | घोषित वर्ष |
|---|---|---|---|
| 1 | कुटियाट्टम, संस्कृत रंगमंच (थिएटर) | प्रदर्शन कला | 2008 |
| 2 | वैदिक मंत्रोच्चार की परंपरा | मौखिक साहित्य | 2008 |
| 3 | रामलीला (रामायण का पारंपरिक प्रदर्शन) | त्योहार | 2008 |
| 4 | रम्माण/राममन उत्सव गढ़वाल हिमालय, भारत का धार्मिक उत्सव और अनुष्ठानिक नाट्यकला | त्योहार | 2009 |
| 5 | छऊ नृत्य | प्रदर्शन कला | 2010 |
| 6 | राजस्थान के कालबेलिया लोकगीत और नृत्य | प्रदर्शन कला | 2010 |
| 7 | मुडियेट्टू, केरल का अनुष्ठान थिएटर और नृत्य नाटक | प्रदर्शन कला | 2010 |
| 8 | लद्दाख का बौद्ध मंत्रोच्चार | मौखिक साहित्य | 2012 |
| 9 | मणिपुर का संकीर्तन अनुष्ठानिक गायन, ढोल बजाना और नृत्य | मौखिक साहित्य और प्रदर्शन कला | 2013 |
| 10 | पंजाब राज्य के जंडियाला गुरु के थाथेरा समुदाय में पीतल और तांबे से बर्तन बनाने की पारंपरिक कला | हस्तशिल्प | 2014 |
| 11 | नवरोज | त्योहार | 2016 |
| 12 | योग | प्रदर्शन कला | 2016 |
| 13 | कुंभ मेला | त्योहार | 2017 |
| 14 | कोलकाता की दुर्गा पूजा | त्योहार | 2021 |
| 15 | गुजरात का गरबा | त्योहार | 2023 |
| 16 | दीपावली | त्योहार | 2025 |
भारत के सभी अमूर्त सांस्कृतिक विरासत (ICH)
1- कुटियाट्टम, संस्कृत रंगमंच (थिएटर) (Kutiyattam, Sanskrit theatre)
शामिल किए जाने का वर्षः 2008
प्रकारः प्रदर्शन कला
क्षेत्र/राज्यः केरल
कुटियट्टम भारत की सबसे प्राचीन जीवंत नाट्य परंपराओं में से एक है और जिसमें संस्कृत के साथ प्राकृत का भी प्रयोग होता है।
यह नाट्यशास्त्र की प्राचीन परंपराओं पर आधारित है, जो 2000 वर्ष से अधिक पुरानी है। यह प्राचीन संस्कृत थिएटर है जो चाक्यार और नंग्यारम्मा समुदायों द्वारा किया जाता है।
कुटियाट्टम नाम मलयालम के कुटी (साथ) और अट्टम (अभिनय/खेल) से बना है, जिसका अर्थ है एक साथ प्रदर्शन करना, जो कई कलाकारों की उपस्थिति को दर्शाता है. यह भारतीय रंगमंच की एक अनूठी और प्राचीन विरासत है जो आज भी जीवित है।
यह संगम युग से चली आ रही एक प्रदर्शन कला है, जिसमें नाटकीय अभिनय, संवाद, नृत्य और संगीत का मिश्रण होता है।
यह भगवान की कहानियों को जीवंत रूप से प्रस्तुत करता है और केरल के मंदिरों में पारंपरिक रूप से किया जाता है। इसमें नेत्र अभिनय (आंखों की अभिव्यक्ति) और हस्त अभिनय (हाथों की मुद्राएं) पर विशेष जोर दिया जाता है, जो मुख्य पात्र की भावनाओं और विचारों को व्यक्त करता है।
यह पारंपरिक रूप से हिंदू मंदिरों में स्थित कुट्टम्पलम नामक थिएटरों में किया जाता है। इसके कलाकारों को श्वास नियंत्रण और पेशियों के सूक्ष्म संचालन, भंगिमा, स्वर के उत्तर-चढ़ाव और अनुष्ठानिक अनुषासन के माध्यम से 10 से 15 वर्षों तक कठिन प्रशिक्षण से गुजरते हैं, और ज्ञान केवल चयनित परिवारों के माध्यम से हस्तांतरित होता है।
एक मंचन को प्रस्तुत करने में कई दिन लग सकते हैं, और पूरी प्रस्तुति 40 दिनों तक चल सकती है।
इसका सांस्कृतिक महत्व संस्कृत नाटक के संरक्षण में है, जो अंतर-सांस्कृतिक संवाद और भावनात्मक अभिव्यक्ति को बढ़ावा देता है।
ये अनुष्ठानिक मंचीय कलाएं सन्निहित ज्ञानार्जन और मार्गदर्शन के जरिए नैतिक, सांस्कृतिक और कलात्मक मूल्यों को अक्षुण्ण रखती हैं।
इसे यूनेस्को ने 2008 में मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत सूची में शामिल किया, जो इसे विश्वव्यापी पहचान दिलाता है।
यह भारत की समृद्ध नाटकीय विरासत का प्रतीक है, जो आध्यात्मिकता और मनोरंजन का मिश्रण है। वर्तमान में, यह परंपरा जीवित है लेकिन आधुनिकता के कारण चुनौतियों का सामना कर रही है। संरक्षण प्रयासों में सरकारी समर्थन और यूनेस्को की मदद से प्रशिक्षण कार्यक्रम शामिल हैं।
2- वैदिक मंत्रोच्चार की परंपरा (Tradition of Vedic Chanting)
शामिल किए जाने का वर्षः 2008
प्रकारः मौखिक साहित्य
क्षेत्र/राज्यः पूरे भारत
वैदिक मंत्रोच्चार वेदों के मौखिक पाठ की प्राचीन परंपरा है, जो संस्कृत कविता, दार्शनिक संवाद, मिथक और अनुष्ठानिक मंत्रों का विशाल संग्रह है, जो 3500 वर्ष से अधिक पुराना है।
वैदिक मंत्रोच्चार की परंपरा भारत की बौद्धिक और आध्यात्मिक विरासत का प्रतिनिधित्व करता है। यह संस्कृत मंत्रों या पाठों का पारंपरिक उच्चारण है, जो वैदिक अध्ययन और स्मृति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
यह दुनिया की सबसे पुरानी जीवंत सांस्कृतिक परंपराओं में से एक है। इसमें सटीक उच्चारण, लय और स्वर पर जोर दिया जाता है, बिना संगीत वाद्यों के।
चार वेदों- ऋग्वेद (ऋग्वेद सबसे प्राचीन तथा प्रथम वेद है), यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद– में संकलित पाठों का पाठ किया जाता है।
ब्राह्मण पुजारी और विद्वान समुदाय इसे धार्मिक अनुष्ठानों, समारोहों और शिक्षा सत्रों में अभ्यास करते हैं।
इसका महत्व भाषाई शुद्धता और प्राचीन ज्ञान से आध्यात्मिक संबंध बनाए रखने में है, जो नैतिक मूल्यों और सामुदायिक एकता को बढ़ावा देता है।
गुरु-शिष्य परंपरा के माध्यम से पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित, यह समकालीन भारतीय जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। केवल 13 वैदिक पाठ शाखाएं बची हैं।
वर्तमान स्थिति में, शहरीकरण के कारण खतरा है, लेकिन संरक्षण के लिए वैदिक पाठशालाएं और यूनेस्को कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं।
3- रामलीला, रामायण का पारंपरिक प्रदर्शन (Ramlila, the traditional performance of the Ramayana)
शामिल किए जाने का वर्षः 2008
प्रकारः त्योहार और प्रदर्शन
क्षेत्र/राज्यः पूरे भारत (मुख्यतः उत्तर भारत)
रामलीला रामायण महाकाव्य के अनुसार भगवान राम के जीवन का पुर्मंचन है, जो प्रभु श्रीराम के जीवन, रावण से युद्ध और बुराई पर अच्छाई की जीत को दर्शाता है।
यह मध्यकालीन भारत में विकसित हुई, जब तुलसीदास के रामचरितमानस (16वीं शताब्दी) पर आधारित समुदायिक कथा परंपरा बनी।
दशहरा के दौरान 10 दिनों तक तक चलने वाले दृश्यों में गीत, कथन, पाठ, वेशभूषा और संवाद शामिल होते हैं। मुखौटे पहने कलाकार, आतिशबाजी और जुलूस इसका हिस्सा हैं।
अयोध्या, रामलीला मैदान (नई दिल्ली), वाराणसी, वृंदावन जैसे स्थानों में प्रमुख प्रदर्शन होते हैं। समुदायिक समूह, गांवों और शहरों के लोग इसमें भाग लेते हैं, जो नैतिक मूल्यों जैसे धर्म और सद्भाव को सिखाता है।
रामलीला भारत के अलावा इंडोनेषिया, म्यांमार, कंबोडिया, थाईलैंड, फिजी, गुयाना, मॉरीषस, सूरीनाम आदि देषों में प्रदर्षन कला संस्कृति का एक हिस्सा है।
परिवारिक कलाकारों के माध्यम से मौखिक रूप से हस्तांतरित, यह स्थानीय कारीगरों को रोजगार देता है। इसका महत्व सामाजिक एकता और सांस्कृतिक प्रतिरोध में है। यह सामुदायिक भागीदारी को बढ़ावा देती है और नैतिक मूल्यों को सिखाती है।
वर्तमान में, यह लोकप्रिय है लेकिन डिजिटल मीडिया से चुनौती, संरक्षण में सरकारी उत्सव और यूनेस्को सहायता शामिल है।
4- रम्माण/राममन उत्सव गढ़वाल हिमालय, भारत का धार्मिक उत्सव और अनुष्ठानिक नाट्यकला है। (Ramman, religious festival and ritual theatre of the Garhwal Himalayas)
शामिल किए जाने का वर्षः 2009
प्रकारः त्योहार
क्षेत्र/राज्यः सालुर डुंगरा, उत्तराखंड
रम्माण चमोली जिले के सालुर डुंगरा गांव के गढ़वाली लोगों का एक गांव का त्योहार है, जो हिमालय क्षेत्र में कहीं और नहीं मनाया जाता है।
इसमें धार्मिक अनुष्ठान, नाटकीय प्रदर्शन, नृत्य और संगीत शामिल होते हैं, जो स्थानीय देवताओं को समर्पित होते हैं और समुदाय की एकता को मजबूत करते हैं।
रम्माण गढ़वाल हिमालय के सालुर और डुंगरा गांवों में अप्रैल के अंत में मनाया जाने वाला त्योहार है, जो स्थानीय देवता भूमियाल देवता को समर्पित है।
यह रामायण की एक संस्करण का पाठ, गीतों और मुखौटे वाले नृत्यों सहित जटिल अनुष्ठानों से युक्त है। क्षत्रिय जाति के स्थानीय प्रतिनिधि भंडारी नरसिंह देवता का पवित्र मुखौटा पहनने के हकदार हैं।
इसमें उपयोग किए जाने वाले वाद्ययंत्रों में ढोल, दमाऊ, मंजीरा, झांझर और भंकोरा (तुरही का एक स्वरूप) शामिल हैं। इन वाद्य यंत्रों का इस्तेमाल प्रस्तुति में मंत्रोच्चारों, नृत्यों और कथा वाचन के बीच किया जाता है।
नाट्यकला, संगीत, वाचन परंपराओं और ऐतिहासिक पुनर्रचना का संगम यह उत्सव सामाजिक एकजुटता को मजबूत करता है।
इसका इतिहास स्थानीय लोककथाओं और धार्मिक परंपराओं से जुड़ा है, जो समुदाय की एकता और आध्यात्मिक श्रद्धा को बढ़ावा देता है।
गढ़वाली लोग इसमें भाग लेते हैं, जो सामाजिक बंधनों को मजबूत करता है। अनोखी विशेषता मुखौटे और अनुष्ठानिक थिएटर है।
वर्तमान स्थिति में, ग्रामीण प्रवास से खतरा; संरक्षण में स्थानीय प्रयास और यूनेस्को मान्यता से पर्यटन को बढ़ावा मिला है।
5- छऊ नृत्य (Chhau dance)
शामिल किए जाने का वर्षः 2010
प्रकारः प्रदर्शन कला
क्षेत्र/राज्यः पश्चिम बंगाल, झारखंड और ओडिशा
छऊ नृत्य पूर्वी भारत की मार्शल डांस परंपरा है, जो महाभारत और रामायण जैसे महाकाव्यों, स्थानीय लोककथाओं और अमूर्त विषयों को दर्शाती है।
इसकी तीन शैलियां हैंः सराइकेला (झारखंड, मुखौटे वाली), पुरुलिया (पश्चिम बंगाल, मुखौटे वाली) और मयूरभंज (ओडिशा, बिना मुखौटे)।
नर्तक मुखौटे पहनकर महाकाव्यों की कहानियां प्रस्तुत करते हैं, जिसमें युद्ध, प्रकृति और पौराणिक कथाएं चित्रित होती हैं। यह शारीरिक शक्ति और कलात्मक अभिव्यक्ति का मिश्रण है।
इसका उद्भव प्राचीन मार्शल अभ्यासों और लोक नृत्यों से है, जिसमें युद्ध तकनीकें, पक्षियों-जानवरों की चाल और गृहिणियों के कार्य शामिल हैं।
रात में खुले मैदान में किया जाता है, जिसमें रीड पाइप मोहुरी और शहनाई पर लोक धुनें बजती हैं।
आदिवासी और ग्रामीण समुदाय इसमें भाग लेते हैं, जो शारीरिक अनुशासन और सांस्कृतिक प्रतिनिधित्व को बढ़ावा देता है। अनोखी विशेषता मुखौटे और जोखिमपूर्ण गतियां हैं।
वर्तमान में, यह जीवित है लेकिन आधुनिकीकरण से खतरा; संरक्षण में प्रशिक्षण स्कूल और उत्सव हैं।
6- राजस्थान के कालबेलिया लोकगीत और नृत्य (Kalbelia folk songs and dances of Rajasthan)
शामिल किए जाने का वर्षः 2010
प्रकारः प्रदर्शन कला
क्षेत्र/राज्यः राजस्थान
कालबेलिया कालबेलिया समुदाय की लोक गीत और नृत्य परंपरा है, जो सांप चार्मरों से जुड़ी है और रेगिस्तानी संस्कृति से सदियों पुरानी है।
महिलाएं काले बहते स्कर्ट में सांप जैसी गतियां करती हैं, जबकि पुरुष खंजरी और पूंगी बजाते हैं। गीत प्रेम, प्रकृति और प्रवास के बारे में होते हैं, मौके पर रचे जाते हैं।
इसका महत्व लचीलापन और सांस्कृतिक अस्तित्व में है, जो हाशिए वाले समुदाय में लिंग सशक्तिकरण को बढ़ावा देता है। परिवारिक सेटिंग में हस्तांतरित, यह पर्यटन को आकर्षित करता है।
अनोखी विशेषता टैटू डिजाइन और मिरर-एम्ब्रॉइडर्ड वस्त्र हैं। यह रेगिस्तानी जीवन और प्रकृति से जुड़ाव को दर्शाता है।
7- मुडियेट्टू, केरल का अनुष्ठान थिएटर और नृत्य नाटक (Mudiyettu, ritual theatre and dance drama of Kerala)
शामिल किए जाने का वर्षः 2010
प्रकारः प्रदर्शन कला
क्षेत्र/राज्यः केरल
मुडियेट्टू देवी काली और दानव दारिका के बीच युद्ध की पौराणिक कथा पर आधारित अनुष्ठानिक नृत्य-नाटक है, जिसका अंत दैवीय विजय से होता है। यह 9वीं शताब्दी से चला आ रहा है।
इसका आयोजन हर साल फसल कटने के बाद भगवती कावुस (देवी के मंदिर परिसर) में किया जाता है। मंदिर के फर्श पर रंगीन पाउडर से काली की विशाल छवि बनाई जाती है। प्रदर्शन में नारद, शिव और काली के दृश्य शामिल हैं। कलाकार शुद्धिकरण अनुष्ठानों से गुजरते हैं।
इसका महत्व आध्यात्मिकता और प्रदर्शन के एकीकरण में है, जो नैतिक कोड और सौंदर्य आदर्शों को हस्तांतरित करता है।
दक्षिण केरल के कलाकार समुदाय इसमें शामिल हैं। अनोखी विशेषता कलम (फ्लोर आर्ट) है। बुजुर्ग अपने प्रशिक्षुओं को अनुष्ठान के समय, मंत्रों, क्रमों और कालमेझुतु की डिजाइनों के बारे में जानकारी देते हैं।
वर्तमान में, यह जीवित है; संरक्षण में मंदिर उत्सव और प्रशिक्षण हैं। इसमें रंगीन वेशभूषा, संगीत और नृत्य शामिल होता है, जो मंदिरों में किया जाता है और बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है।
8- लद्दाख का बौद्ध मंत्रोच्चार (Buddhist chanting of Ladakh)
शामिल किए जाने का वर्षः 2012
प्रकारः मौखिक साहित्य
क्षेत्र/राज्यः लद्दाख
लद्दाख का बौद्ध मंत्रोच्चार बुद्ध की शिक्षाओं का पाठ है, जो 7वीं शताब्दी से मौखिक रूप से हस्तांतरित है।
लद्दाख का बौद्ध मंत्रोच्चार बौद्ध धर्म की दो प्रमुख शाखाओं – महायान और वज्रयान से जुड़ा है, जो चार मुख्य संप्रदायों – निंगमा, काग्यूद, शाक्य और गेलुग- में विभिन्न विभाजित हैं।
इसकी जड़ें प्राचीन बौद्ध परंपराओं में है, जो लद्दाख के ट्रांस-हिमालयी क्षेत्रों में सदियों से चली आ रही है।
लामा मठों और गांवों में समूह में बातें करते हैं, मुद्राओं, विशेष वेशभूषा और वाद्यों जैसे घंटी, ड्रम, झांझ और ट्रंपेट के साथ।
यह मंत्रोच्चार लद्दाख की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक पहचान का अभिन्न हिस्सा है। यह समुदाय की जीवनशैली को दर्शाता है और विश्व शांति, नैतिक विकास तथा सांस्कृतिक विविधता को बढ़ावा देता है।
यह बौद्ध दर्शन की शिक्षाओं को जीवंत रखता है, जो आपसी सम्मान और शांति पर जोर देती है। मंत्रोच्चर का हस्तांतरण मौखिक रूप से गुरू-शिष्य परंपरा के माध्यम से होता है।
इसका महत्व आध्यात्मिक ज्ञान संरक्षण, शांति और सांस्कृतिक निरंतरता में है। मठीय समुदाय इसमें भाग लेते हैं। अनोखी विशेषता जीवन-चक्र अनुष्ठानों में नृत्य है।
यह ध्यान, प्रार्थना और आध्यात्मिक अभ्यास का हिस्सा है, जो हिमालयी क्षेत्र की सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान को बनाए रखता है।
आधुनिकीकरण और युवाओं की रूचि की कमी चुनौतियां हैं, लेकिन समुदाय आधारित प्रयास इसे जीवित रखे हुए हैं।
वर्ष 2012 की प्रविष्टि के बाद, यह भारत की 08वीं अमूर्त सांस्कृतिक विरासत बनी, जो लद्दाख की आध्यात्मिक समृद्धि और सांस्कृतिक विविधता को वैष्विक स्तर पर उजागार करती है।
9- मणिपुर का संकीर्तन (Sankirtana, Manipur)
शामिल किए जाने का वर्षः 2013
प्रकारः मौखिक और प्रदर्शन
क्षेत्र/राज्यः मणिपुर
संकीर्तन की जड़ें वैष्णव धर्म से जुड़ी हैं, जो हिंदू धर्म की एक प्रमुख शाखा है। यह मणिपुर में 18वीं शताब्दी में राजा भग्यचंद के शासनकाल से प्रमुखता से विकसित हुआ, जब वैष्णववाद को राज्य के धर्म के रूप में अपनाया गया।
संकीर्तन शब्द संस्कृत से लिया गया है, जिसका अर्थ है सामूहिक कीर्तन या भगवान की स्तुति में सामूहिक गायन।
यह मणिपुर के मेइतेई समुदाय की परंपरा है, जो मंदिरों, घरों और सामाजिक अवसरों पर किया जाता है।
यह कृष्ण की लीला (रासलीला) और अन्य धार्मिक कथाओं से प्रेरित है, और इसमें नट संकीर्तन (पुरूषों द्वारा) और नुपा संकीर्तन (महिलाओं द्वारा) ढोल वादन, गायन, और नृत्य का अनुष्ठान है। यह परंपरा पीढ़ी दर पीढ़ी मौखिक रूप से हस्तांतरित होती है।
इसका महत्व भक्ति, समुदाय एकता और स्वदेशी संगीत संरक्षण में है और सामुदायिक उत्सवों में किया जाता है, जो आध्यात्मिक एकता और सांस्कृतिक अभिव्यक्ति को बढ़ावा देता है।
संकीर्तन मणिपुर के वैष्णव समुदाय में सामाजिक एकता और सांस्कृतिक निरंतरता का प्रतीक है। यह धार्मिक अवसरों पर समुदाय को एकत्रित करता है और आध्यात्मिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों को मजबूत करता है।
यह लोगों और प्रकृति के बीच जैविक संबंध को बढ़ावा देता है, और सतत विकास लक्ष्यों से जुड़ा हैं, जैसे सांस्कृतिक विविधता और समुदाय विकास।
संकीर्तन का हस्तांतरण गुरू-शिष्य परंपरा के माध्यम से होता है, जहां अनुभवी कलाकार युवाओं को मौखिक और व्यावहारिक प्रशिक्षण देते हैं।
संकीर्तन मणिपुर के मंदिरों और समुदायों में सक्रिय रूप से जीवित है और राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर प्रदर्शित होता है। यह पर्यटन और सांस्कृतिक आदान-प्रदान को बढ़ावा देता है।
वर्ष 2013 की यूनेस्को प्रविष्टि के बाद, यह भारत की 09वीं अमूर्त सांस्कृतिक विरासत बनी, जो मणिपुर की समृद्ध परंपराओं को वैष्विक पटल पर लाती है।
10- पंजाब राज्य के जंडियाला गुरु के थाथेरा समुदाय में पीतल और तांबे से बर्तन बनाने की पारंपरिक कला (Traditional brass and copper craft of utensil making among the Thatheras of Jandiala Guru, Punjab)
शामिल किए जाने का वर्षः 2014
प्रकारः हस्तशिल्प
क्षेत्र/राज्यः पंजाब
थाथेरा समुदाय द्वारा पीतल और तांबे के बर्तनों का निर्माण प्राचीन तकनीकों से होता है, जो हाथ से हथौड़े मारकर की जाती है। यह षिल्प हजारों वर्ष पुराना है और भारतीय संस्कृति में गहराई से जुड़ा हुआ है।
थाथेरा समुदाय पंजाब और आसपास के क्षेत्रों में पीतल और तांबें के बर्तन के मास्टर कारीगर के रूप में जाने जाते हैं। जंडियाला गुरू, अमृतसर से लगभग 18 किलोमीटर दूर, इस शिल्प का मुख्य केन्द्र हैं, जहाँ थाथेरा परिवार सदियों से इस कला का जीवित रखे हुए हैं।
यह शिल्प पूरी तरह से हाथ से किया जाता है, जिसमें पीतल, तांबा और कुछ मिश्र धातुओं का उपयोग किया जाता है।
ठंडी धातु की प्लेटों को गर्म करके आकार दिया जाता है, फिर रेत और इमली से पॉलिश किया जाता है।
यह शिल्प थाथेरा समुदाय के लिऐ केवल आजीविका का साधन नहीं है, बल्कि उनकी पारिवारिक और रिश्तेदारी संरचना, कार्य नीति और शहर के सामाजिक पदानुक्रम में उनकी स्थिति को पारिभाषित करता है।
शिल्प का हस्तातंरण मौखिक रूप से पिता से पुत्र को होता है, जो इसे जीवित रखने का मुख्य तरीका है।
वर्तमान में, औद्योगिकीकरण से खतरा, मशीनीकरण, सस्ते विकल्पों की उपलब्धता और युवा पीढ़ी की रूचि की कमी के कारण यह लुप्तप्राय हो रही है। यूनेस्को की मान्यता ने संरक्षण प्रयासों को बढ़ावा दिया है।
वर्तमान में, जंडियाला गुरू में कुछ परिवार ही इस शिल्प को जारी रखे हुए हैं, और पर्यटन तथा ऑनलाईन प्लेटफॉर्म्स से इसे नई ऊर्जा मिल रही है। यह विरासत भारत की सांस्कृतिक समृद्धि का एक अनमोल हिस्सा है, जो परंपरा और नवाचार के मेल को दर्शाती है।
यह एकमात्र भारतीय शिल्प है जो यूनेस्को की अमूर्त विरासत की सूची में शामिल है।
11- नवरोज (Navroz/Nowruz)
शामिल किए जाने का वर्षः 2016
प्रकारः त्योहार
क्षेत्र/राज्यः पूरे भारत (मुख्यतः पारसी समुदाय)
नवरोज मुख्य रूप से पारसी (जरथुस्त्री) समुदाय द्वारा मनाया जाने वाला वसंत त्योहार है। नवरोज 13 दिनों तक चलता है।
पारसी समुदाय जो जोरोस्ट्रियन धर्म के अनुयायी हैं, 10वीं शताब्दी में फारस (ईरान) से भारत आए थे और मुख्य रूप से मुंबई, गुजरात, पुणे और अन्य शहरों में बसे हैं।
इसमें नई शुरुआत, प्रकृति और परिवार के साथ जश्न शामिल होता है, जो फारसी परंपराओं से जुड़ा है। (यह बहुराष्ट्रीय तत्व है जिसमें भारत शामिल है।)
नवरोज पारसी नव वर्ष है, जो वसंत विषुव पर मनाया जाता है, जिसमें दावतें, प्रार्थनाएं और साफ-सफाई शामिल हैं। सदियों से भारतीय पारसी समुदाय द्वारा अपनाया गया।
नवरोज में स्प्रिंग क्लीनिंग, हफ्त-सिन टेबल, चहारशंबे सुरी, सिजदाह बेदर परंपराएं और उत्सव का आयोजन किया जाता है। नवरोज में विशेष व्यंजन सब्जी पोलो महि, कोको सब्जी, रेश्ते पोलो, बाकलावा, समने आदि तैयार किए जाते हैं।
संयुक्त राष्ट्र द्वारा इसे अंतर्राष्ट्रीय नवरोज दिवस के रूप में मान्यता दी गई है, जो आमतौर पर 21 मार्च को पड़ता है, जब वसंत विषुव होता है।
नवरोज की उत्पति 06वीं शताब्दी ईसा पूर्व से मानी जाती है, जब प्राचीन फारस में मनाया जाने लगा।
यह जोरोस्ट्रियन धर्म से जुड़ा है, जहाँ यह प्रकृति के पुनर्जन्म और अच्छाई की जीत का प्रतीक है। वर्ष 2009 में, यूनेस्को ने इसे मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत की सूची में शामिल किया।
इसका महत्व नवीकरण और बहुसांस्कृतिक सद्भाव में है। परिवारिक रूप से हस्तांतरित। वर्तमान में, यह जीवित है, संरक्षण में सामुदायिक उत्सव हैं।
12- योग (Yoga)
शामिल किए जाने का वर्षः 2016
प्रकारः प्रदर्शन और अभ्यास
क्षेत्र/राज्यः पूरे भारत
योग सिर्फ व्यायाम नहीं, बल्कि 5000 वर्ष पुराना शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक अभ्यास है जो शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक कल्याण को बढ़ावा देता है, जिसमें विभिन्न तकनीकें (आसन, प्राणायाम और ध्यान) शामिल हैं।
गुरु-शिष्य परंपरा और आधुनिक शिक्षा के माध्यम से प्रसारित किया जाता है, और यह समग्र कल्याण के लिए एक महत्वपूर्ण साधन है। इसका महत्व स्वास्थ्य और सद्भाव में है।
यूनेस्को (UNESCO) ने 1 दिसंबर, 2016 को योग को मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत (Intangible Cultural Heritage) की सूची में शामिल किया, जो इसे एक वैश्विक मान्यता देता है और इसके सांस्कृतिक व आध्यात्मिक महत्व को उजागर करता है
हर साल 21 जून को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाया जाता है।
13- कुंभ मेला (Kumbh Mela)
शामिल किए जाने का वर्षः 2017
प्रकारः त्योहार
क्षेत्र/राज्यः प्रयागराज, हरिद्वार, नासिक, उज्जैन
कुंभ मेला भारत का सबसे बड़ा धार्मिक उत्सव और दुनिया का सबसे बड़ा जनसमूह वाला आयोजन है, जहाँ लाखों-करोड़ों श्रद्धालु एकत्र होते हैं।
यह हिंदू धर्म की एक प्राचीन परंपरा है, जो अमृत कलश की कथा से जुड़ी और यह हर 12 वर्ष में चार पवित्र शहरों में प्रयागराज (उत्तर प्रदेश में गंगा,यमुना और अदृश्य सरस्वती नदी के त्रिवेणी संगम में यह महाकुंभ हर 12 वर्ष में होता है), हरिद्वार (उत्तराखण्ड में गंगा नदी के तट पर बृहस्पति मेष राशि में होता है), उज्जैन (मध्य प्रदेश क्षिप्रा नदी के किनारे, सिंह राशि में बृहस्पति के समय) और नासिक (महाराष्ट्र में गोदावरी नदी पर, सिंह राशि में सूर्य और बृहस्पति के समय) बारी-बारी से आयोजित होने वाला विश्व प्रसिद्ध उत्सव है।
कुंभ हर 03 वर्ष में इनमें से एक स्थान पर होता है, जबकि पूर्ण कुंभ (महाकुंभ) हर 12 वर्ष में होता है।
कुंभ मेले की उत्पति पौराणिक कथाओं से जुड़ी हैं। हिंदू पुराणों के अनुसार देवाताओं और असुरों के बीच समुद्र मंथन के दौरान अमृत कलश निकला। अमृत की रक्षा के लिए देवता और असुर लड़ पड़े, और इस दौरान अमृत की कुछ बूंदे चार स्थानों पर गिरी-प्रयागराज, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक इसी कारण इन स्थानों पर कुंभ मेला मनाया जाता है।
कुंभ मेला में करोड़ों लोग पवित्र नदियों में स्नान करते हैं।
कुंभ मेला न केवल भारत की सांस्कृतिक धरोहर है बल्कि वैश्विक स्तर पर शांति और एकता का प्रतीक है यह दुनिया भर से पर्यटकों और शोधकर्ताओं को आकर्षित करता है। इसका महत्व एकता और आध्यात्मिकता में है। अखाड़ों और साधुओं द्वारा संचालित।
वर्तमान में, बड़े जनसमूह के कारण चुनौतियां जैसे स्वास्थ्य, सुरक्षा और पर्यावरण संरक्षण भी जुड़ी है, जिन्हें सरकार द्वारा भली प्रकार से कारगर प्रबंधन के उपायों के साथ संचालित और संरक्षित किया जा रहा है।
14- कोलकाता की दुर्गा पूजा (Durga Puja in Kolkata)
शामिल किए जाने का वर्षः 2021
प्रकारः त्योहार
क्षेत्र/राज्यः कोलकाता, पश्चिम बंगाल
दुर्गा पूजा अच्छाई की बुराई पर जीत, स्त्री शक्ति (शक्ति) और सृजन-विनाष के चक्र का प्रतीक है। यह नवरात्रि का हिस्सा है, लेकिन बंगाल में इसे दुर्गाेत्सव के रूप में मनाया जाता है, जहाँ देवी को मां के रूप में पूजा होता है।
दुर्गा पूजा भारत का एक प्रमुख हिंदू त्योहार है, जो देवी दुर्गा की महिषासुर पर विजय का जश्न माता है।
यह देवी दुर्गा की पूजा का भव्य त्योहार है जिसमें अनुष्ठान, कला, संगीत और सांस्कृतिक कार्यक्रम शामिल होते हैं।
पंडाल, मूर्तियां और सामुदायिक जश्न इसे अनोखा बनाते हैं। दुर्गा पूजा 10-दिवसीय त्योहार है, जो दुर्गा की जीत मनाता है। मिट्टी की मूर्तियों, पंडाल और बंगाली ड्रमिंग शामिल।
दुर्गा पूजा सामाजिक रूप से यह समुदाय को एकजुट करता है, कला-संस्कृति को बढ़ावा देता है और सामाजिक मुद्दों जैसे महिला सशक्तिकरण पर जागरूकता फैलता है।
आर्थिक दृष्टि से, यह पर्यटन और स्थानीय व्यापार को बढ़ावा देता है। इसका महत्व कलात्मक अभिव्यक्ति और सामाजिक बंधन में है।
दुर्गा पूजा भारत के अलावा अब वैश्विक है, जो न्यूयॉर्क, लंदन, टोरंटो आदि में मनाया जाने लगा है। यह त्योहार कला, शिल्प और सामाजिक जागरूकता को बढ़ावा देता है, इसके संरक्षण में सामुदायिक प्रयास अनवरत जारी है।
15- गुजरात का गरबा (Garba of Gujarat)
शामिल किए जाने का वर्षः 2023
प्रकारः त्योहार और नृत्य
क्षेत्र/राज्यः गुजरात
गरबा की उत्पत्ति गुजरात के ग्रामीण समुदायों से मानी जाती है, जो हजारों वर्ष पुरानी है। गरबा शब्द संस्कृत के गर्भ से लिया गया है, जो गर्भ या जीवन के चक्र को दर्शाता है, और यह नृत्य जीवन, उर्वरता और दिव्य स्त्री शक्ति का प्रतीक है।
यह नृत्य मूल रूप से देवी दुर्गा की पूजा से जुड़ा है, जहाँ एक मिट्टी के बर्तन (गर्भ दीप) के चारों ओर लोग घूमकर नाचते हैं, जो जीवन और प्रकाश का प्रतीक है।
गरबा नवरात्रि में किया जाने वाला ऊर्जावान नृत्य है, लोग वृत्ताकार में घूमकर डांडिया स्टिक और लोक संगीत के साथ, ताली बजाते हुए नृत्य करते हैं, जो देवी की पूजा और सामुदायिक खुशी को दर्शाता है।
गरबा जीवन, सृजन और समुदाय की एकता का प्रतीक है। यह धार्मिक रूप से देवी दुर्गा की शक्ति को जागृत करता है और सामाजिक रूप से लोगों को जोड़ता है।
गरबा केवल एक नृत्य नहीं है, बल्कि एक सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक अनुष्ठान है। आधनुकिक समय में, यह सांस्कृतिक आदान-प्रदान का माध्यम भी बन गया है, जहाँ विभिन्न देषों में प्रवासी गुजराती समुदाय इसे मानते हैं।

16- दीपावली (Deepavali)
शामिल किए जाने का वर्षः 2025
प्रकारः त्योहार
क्षेत्र/राज्यः पूरे भारत
दीपावली भारत का सबसे प्रमुख और महत्वपूर्ण रोशनी का त्योहार है, जिसे रोशनी का पर्व के रूप में जाना जाता है।
दीपावली खुशी का त्योहार है जो अंधकार पर प्रकाश की विजय, बुराई पर अच्छाई की जीत और अज्ञान पर ज्ञान का प्रतीक के रूप में मनाई जाती है।
दीवापली भागवान राम की लंका विजय और अयोध्या वापसी की याद में मनाया जाता है, जो बुराई (रावण) पर अच्छाई की जीत को दर्शाता है, तथा यह देवी लक्ष्मी (समृद्धि की देवी) और भगवान गणेश (बुद्धि के देवता) की पूजा से जुड़ा है।
जैन धर्म में यह भगवान महावीर के निर्वाण की स्मृति में, तथा सिख धर्म में गुरू हरगोबिंद सिंह की रिहाई से जूड़ा है।
दीपावली पांच दिनों तक चलने वाला त्योहार है, जिसमेंः धनतेरस, नरक चतुर्दशी, दीवाली, गोवर्धन पूजा और भाई दूज है।
दीपावली में घरों की सफाई, सजावट, दीप जलाना, पटाखे और आतिशबाजी, पूजा, प्रार्थना तथा मिठाइयां और उपहार सामुदायिक भागदारी के साथ मनाया जाने वाला त्योहार है।
यह सांस्कृतिक विविधता, पहचान और सामाजिक एकता को बढ़ावा देता है। वैश्वीकरण के युग में यह परंपराओं को संरक्षित रखने में मदद करता है।
दीपावली को 10 दिसम्बर 2025 में यूनेस्को द्वारा भारत की 16वीं अमूर्त सांस्कृतिक विरासत की सूची शामिल किया गया है।
