गुप्त साम्राज्य का इतिहास उत्थान से पतन
गुप्त काल 240 से 550 ई.
कुषाण वंश के पतन के पश्चात् तीसरी शताब्दी के अंत में प्रयाग के निकट कौशाम्बी में गुप्त साम्राज्य Gupta Empire का उदय हुआ। आरंभिक गुप्त राज्य में मगध एवं उत्तर पश्चिम बंगाल तक गंगा नदी के तटीय प्रदेश सम्मिलित थे।
गुप्तकाल के शासक [Rulers of Gupta Empire]
- श्रीगुप्त (240-280 ई.) गुप्त वंश का संस्थापक
- घटोत्कक्ष (280-319 ई.)
- चन्द्रगुप्त प्रथम (319-335 ई.)
- समुद्रगुप्त (335-375 ई.)
- रामगुप्त (375-380 ई.)
- चन्द्रगुप्त द्वितीय (380-414 ई.)
- कुमारगुप्त प्रथम (415-455 ई.)
- स्कंदगुप्त (455-467 ई.)
- पुरूगुप्त (467-473 ई.)
- कुमारगुप्त द्वितीय (473-476 ई.)
- बुधगुप्त (476-495 ई.)
- वैन्यगुप्त (495-510 ई.)
- भानुगुप्त (510-540)
- विष्णुगुप्त (540-550 ई.) गुप्त वंश का अंतिम शासक
श्रीगुप्त (Sri Gupta) (240-280 ई.)
गुप्त वंश की स्थापना श्रीगुप्त ने की थी। संभवतया वे वैश्व जाति से संबंधित थे।
प्रभावती के पूना ताम्रपत्र अभिलेख में श्रीगुप्त को गुप्त वंश का आदिराज के रूप में किया गया है।
श्रीगुप्त ने महाराजा की उपाधि धारण की।
घटोत्कक्ष (Ghatotkacha) (280-319 ई.)
श्रीगुप्त के बाद उसका पुत्र घटोत्कच हुआ इसने भी महाराजा की उपाधि धारण की।
घटोत्कक्ष का राज्य मगध के आसपास तक ही समिति था।
चन्द्रगुप्त प्रथम Chandragupta I (319-335 ई.)
गुप्त वंश का प्रथम महान सम्राट चन्द्रगुप्त प्रथम था यह 319 ई. में गद्दी पर बैठा। चन्द्रगुप्त प्रथम को गुप्त राजवंश का वास्तविक संस्थापक माना जाता है।
चन्द्रगुप्त प्रथम ने महाराजाधिराज की उपाधि धारण की।
चन्द्रगुप्त प्रथम ने लिच्छवि वंश की राजकुमारी कुमार देवी से विवाह किया।
गुप्त संवत् की शुरूआत चन्द्रगुप्त प्रथम ने किया। (गुप्त संवत् और शक संवत् के बीच 241 वर्षों का अंतराल है)
चन्द्रगुप्त प्रथम का साम्राज्य मगध, साकेत तथा प्रयाग तक विस्तृत था। उसकी राजधानी पाटलिपुत्र थी।
समुद्रगुप्त Samudragupta (335-375 ई.)
चन्द्रगुप्त प्रथम का उत्तराधिकारी समुद्रगुप्त था जो 335 ई. में राजगद्दी पर विराजमान हुआ।
हरिषेण समुद्रगुप्त का दरबारी कवि था जिसने प्रयाग प्रशास्ति लेख में समुद्रगुप्त के विजय अभियानों का उल्लेख किया।
समुद्रगुप्त ने सर्वप्रथम आर्यवर्त अर्थात् गंगा, युमना दोआब पर सैनिक अभियान किया। नौ राजओं नागदत्त, रूद्रदेव, मतिल, चन्द्रवर्मन, गणपति, नागसेन, अच्चुत, नंदी तथा बलवर्मा को पराजति किया जिन्हें राजप्रसभोद्धरण की नीति के तहत् अपने साम्राज्य में मिला लिया।
समुद्रगुप्त ने दक्षिण भारत के 12 शासकों कौशल, कोरल, महाकांतर, कांची, वैंगी, पल्लक, देवराष्ट्र, पिष्टपुर, कोट्टूर, कुस्थलपुर, अवमुक्त तथा एरनपल्ली को पराजित कर बाद में सभी राज्य राजाओं का ग्रहणमोक्षानुग्रह अर्थात् ग्रहण (शत्रु पर अधिकार), मोक्ष (शत्रु को मुक्त) एवं अनुग्रह (राज्य को लौटाकर) मुक्त कर दिया। हरिषेण ने इस नीति को राजगृहणमोक्षानुग्रह कहा है।
समुद्रगुप्त दक्षिण भारत को जीतने वाला प्रथम भारतीय शासक था।
समुद्रगुप्त के विजयों के आधार पर इतिहासकार विसेंट स्मिथ ने समुद्रगुप्त को भारत का नेपोलियन कहा।
समुद्रगुप्त ने अश्वमेघकर्ता, विक्रमंक, तथा परमभागवत् की उपधि धारण करने वाला प्रथम गुप्त शासक था।
समुद्रगुप्त वैष्णव धर्म का प्रबल समर्थक तथा विष्णु का उपासक था।
समुद्रगुप्त संगीत प्रेमी था। प्रयाग प्रशस्ति में इसे कविराज कहा गया। उसने वीणा वादक तथा गरूड़ चिन्ह युक्त मुद्रा चलाया।
मुद्राओं से ज्ञात होता है कि समुद्रगुप्त ने अश्वमेघ यज्ञ करवाया।
इतिहासकार के अनुसार समुद्रगुप्त को सौ युद्धों का विजेता था।
रामगुप्त Ramgupta (375-380 ई.)
रामगुप्त समुद्रगुप्त का पुत्र था यह कायर और कमजोर शासक था। विशाखदत्त के संस्कृत देवीचंद्रगुप्तम के अनुसार रामगुप्त ने अपनी पत्नी ध्रुव स्वामिनी (ध्रुवदेवी) को शकों के सामने आत्मसमर्पण कर दिया था जिसे चन्द्रगुप्त द्वितीय ने शक शासक को मारकर बचाया और उससे विवाह किया।
चन्द्रगुप्त द्वितीय Chandragupta II (380-414 ई.)
चन्द्रगुप्त द्वितीय ने रामगुप्त की हत्या कर 380 ई. में राजगद्दी पर बैठा।
चन्द्रगुप्त द्वितीय गुप्त वंश का सबसे महान शासक था। उसने शक पर विजय प्राप्त कर विक्रमादित्य की उपाधि धारण की अर्थात् सूर्य के समान बलशाली।
इसने उत्तर के 10 गणराज्यों का अंत कर गणारि की उपाधि धारण की।
गुप्त शासकों की राजधानी पाटलीपुत्र थी चन्द्रगुप्त द्वितीय ने उज्जयिनी को अपनी दुसरी राजधानी बनाया ताकि साम्राज्य के पश्चिमी क्षेत्र पर नियंत्रण रखा जा सके।
चन्द्रगुप्त द्वितीय कला और साहित्य के संरक्षण के विख्यात था उसके दरबार में नौ विद्धानों की मंडली थी जिसे नवरत्न कहा गया है। जिसमें कालिदास (महाकवि), धनवतंरि, क्षपणक, अमरसिंह, शंकु, बेतालभट्ट, घटकर्पर, वाराहमिहिर एवं वरूरूचि थे।
चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय चीनी यात्री फाहियान / फाह्यान (399-414 ई.) भारत आया।
चन्द्रगुप्त द्वितीय ने नागवंश की राजकुमारी कुबेरनागा से विवाह किया उसे उत्पन्न पुत्री प्रभावती गुप्त का विवाह वाकाटक वंश के शासक रूद्रसेन द्वितीय से किया।
चन्द्रगुप्त द्वितीय के विजय का उल्लेख मेहारौली स्तंभ से ज्ञात होता है।
चन्द्रगुप्त द्वितीय वैष्णव सम्प्रदाय का अनुयायी था इसने परमभागवत् की उपाधि धारण किया।
चन्द्रगुप्त द्वितीय ने अपने मुद्राओं में सिंह का वध करते हुए दिखाया है।
कुमारगुप्त प्रथम Kumaragupta I (415-455 ई.)
चन्द्रगुप्त द्वितीय का उत्तराधिकारी कुमारगुप्त प्रथम या गोविन्दगुप्त हुआ। जो महादेवी ध्रुव स्वामिनी से पैदा हुआ था।
कुमारगुप्त प्रथम ने अश्वमेघ यज्ञ करवाया तथा महेन्द्रादित्य की उपाधि धारण की।
कुमारगुप्त प्रथम के शासनकाल में पश्चिमोत्तर भारत ने हूणों द्वारा प्रथम बार आक्रमण किया गया। जिसे कुमारगुप्त प्रथम के पुत्र स्कंदगुप्त ने पराजित कर भारत से निष्कासित कर दिया।
नालंदा विश्वविद्यालय के संस्थापक कुमारगुप्त द्वितीय था।
कुमारगुप्त प्रथम कार्तिकेय का उपासक था। उसने मोर की आकृति वाले सिक्के जारी किए।
ह्वेनसांग ने कुमारगुप्त का नाम शक्रादित्य बताया।
स्कन्दगुप्त Skandagupta (455-467 ई.)
कुमारगुप्त प्रथम का उत्तराधिकारी स्कन्दगुप्त हुआ।
स्कंदगुप्त ने गिरनार पर्वत पर स्थित सुदर्शन झील का पुनरूद्धार का कार्य पर्णदत्त के पुत्र चक्रपालित को सौंपा था जिसने झील के किनारे पर विष्णु मंदिर का निर्माण करवाया।
स्कंदगुप्त को गुप्त शासकों में से अंतिम महान सम्राट था।
स्कंदगुप्त ने हुणों को पराजित कर विक्रमादित्य की उपाधि धारण की तथा उसे मलेच्छ भी कहा गया।
स्कंदगुप्त की मृत्य 467 ई. के पश्चात् उसका भाई पुरूगुप्त उसका उत्तराधिकारी बना।
पुरूगुप्त Purugupta
पुरूगुप्त कुमारगुप्त की रानी अनंतदेवी का पुत्र था।
पुरूगुप्त (467-473 ई.) ने प्रकाशादित्य की उपाधि धारण की।
कुमारगुप्त द्वितीय Kumaragupta II
पुरूगुप्त का उत्तराधिकारी कुमारगुप्त द्वितीय (473-476 ई.) था। इसने क्रमादित्य की उपाधि धारण की।
बुधगुप्त Budhagupta
कुमारगुप्त द्वितीय का उत्तराधिकारी उसका पुत्र बुधगुप्त (476-495 ई) था। बुधगुप्त का कन्नौज के शासकों के साथ मधुर संबंध थे उनके साथ मिलकर अल्चोन हुणों को भगाने की कोशिश की।
वैन्यगुप्त तथा भानुगुप्त (Vainyagupta and Bhanugupta)
वैन्यगुप्त और भानुगुप्त के संबंध में इतिहास अधिक विवरण ज्ञात नहीं है। भानुगुप्त के समय एरण अभिलेख (510 ई.) में मिलता है जिसमें पहली बार सती प्रथा होने का उल्लेख है।
विष्णगुप्त (Vishnugupta)
विष्णुगप्त (540-550 ई.) गुप्त वंश का अंतिम शासक था।
विष्णुगुप्त पुरूगुप्त का पोता था।
विष्णुगुप्त ने 10 वर्षों तक शासन किया।
गुप्त साम्राज्य के पतन का मूल कारण केन्द्रीय शाक्ति का दुर्बल होना, आतंरिक कलह, बौद्ध धर्म का प्रभाव तथा हूणों (खानाबदोश जंगलियों समूह) का आक्रमण था।
गुप्तकालीन प्रशासन
गुप्त काल का स्वरूप राजतंत्रात्मक था राजा का पद वंशानुगत था।
गुप्त साम्राज्य में शासन का प्रमुख सम्राट होता था। वह सभी शक्तियों का स्त्रोत था।
प्रशासन
गुप्त काल में प्रशासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम जिसका मुखिया ग्रामपति कहलाता था।
ग्राम का प्रशासन ग्रामसभा द्वारा संचालित होता था जिसका प्रमुख ग्रामिक होता था एवं अन्य सदस्य महत्तर कहलाते थे।
ग्राम समूहों की छोटी इकाई को पेठ कहा जाता था।
गुप्त साम्राज्य में प्रशासन की सबसे बड़ी इकाई देश थी। जिसके शासक को गोप्ता कहा जाता था। दूसरी प्रादेशिक इकाई जिसे भूक्ति कहा जाता था जिसके प्रशासक उपरिक कहलाते थे। भूक्त के नीचे विषय नामक इकाई होती थी जिसके प्रमुख विषयापति कहलाते थे।
गुप्तकाल के प्रमुख पदाधिकारी
- महासेनापति/महाबलाधिकृत – सेना का सर्वोच्च अधिकारी
- महाश्वपति – अवश्वरोहियों का प्रधान सेनापति़
- भटाश्वपति – घुड़सवारों का नायक
- महापीलुपति – हाथियों के सेना का प्रधान सेनापति
- कटुक – हाथियों की सेना का नायक
- रणभांडागारिक – सेना के रसद/भंडार का अधिकारी
- दण्डपाशिक – पुलिस प्रमुख (पुलिस के साधारण कर्मचारियों को चाट एवं भाट कहा जाता था)
- महादण्डनायक – उच्च सैनिक पदाधिकारी
- प्रतिहार – द्वार पर पहरा देने वाला
- महाप्रतिहार – प्रतिहारों का प्रमुख
- महासंधिविग्राहिक – विदेशमंत्री
- महाभंडारागाराधिकृत – भंडार का प्रभारी
- ध्रुवाधिकरण – वित्त विभाग का प्रमुख अधिकारी
- खाद्यात्पार्किवा – राजमहल के रसोई का प्रमुख अधिकारी
- अक्षपातलाधिकृत – अभिलेख एवं लेखा विभाग का प्रमुख अधिकारी
गुप्त काल का आर्थिक जीवन
गुप्तकाल में आर्थिक दृष्टि से कृषि, पशुपालन, उद्योग एवं शिल्प तथा व्यापार वणिज्य काफी समृद्व था।
हल में लोहे के फाल का प्रयोग किया जाता था।
सिंचाई के लिए स्कंदगुप्त ने गिरिनार पर्वत पर सुदर्शन झील का पुनरूद्धार करवाया।
सिंचाई के लिए रहट या घंटी यंत्र का प्रयोग होता था।
बृहत्संहिता में तीन फसलों श्रावण, बसंत और चैत्र या बैसाख का उल्लेख मिलता है।
अमरकोष में गेहूँ, धान, ज्वार, बाजरा, दाल, मटर, तिल, सरसों, अलसी, ईख, अदरक, कालीर्मिच उपजों का उल्लेख मिलता है।
गुप्तकाल में राजकीय आय का मुख्यस्त्रोत भूमिकर था।
भाग – भूमि के उत्पादन का 1/6 हिस्सा।
भोग – फल-फूल सब्जियों के रूप में दिया जाने वाला कर
उपरिकर एवं उद्रंग – उन कृषकों से लिया जाता है जिसका भूमि पर कोई स्वामित्व अधिकार नहीं था।
आर्थिक उपयोगिता के आधार पर भूमि का उल्लेख मिलता है :-
क्षेत्र भूमि – कृषि योग्य भूमि
वास्तु भूमि – निवास करने योग्य भूमि
चारागाह भूमि – पशुओं के चारा योग्य भूमि
सिल – बंजर भूमि
अप्रहत – जंगली भूमि
पशुपालन जीविका का प्रमुख साधन था।
कामन्दकीय नीतिसार के अनुसार गाय का पालन करना वैश्य का पेशा था।
बैल हल चलाने और सामान ढोने के लिए काम आता था।
गुप्तकाल में धातुविज्ञान के क्षेत्र में काफी प्रगति हुई इसका उदाहरण मैहरोली (दिल्ली) का लौह स्तम्भ है जिस पर हजारों वर्ष बाद भी जंग नहीं लगा है।
गुप्त राजाओं ने सर्वाधिक स्वर्ण मुद्राएं जारी की। स्वर्ण मुद्राओं को दीनार तथा चांदी के मुद्राओं को रूपक कहा जाता था।
फाह्यान के अनुसार गुप्तकाल में जनता दैनिक जीवन के विनिमय में वस्तुओं के आदान प्रदान या फिर कौड़ियों का उपयोग करते थे।
वस्त्र निर्माण गुप्तकाल का प्रमुख उद्योग था।
अमरकोष के अनुसार गुप्तकाल में धनी व्यक्तियों के लिए बहुत महीन कपड़ा बनाया जाता था इस पुस्तक में रेशम का कपड़ा तैयार करने की प्रक्रिया का वर्णन है। रेशमी वस्त्र, मलमल, ऊनी व सूती वस्त्रों की विदेशों में मांग थी।
गुप्तकाल में आभूषण बनाने के लिए स्वर्ण एवं रजत के अतिरिक्त विभिन्न प्रकार के रत्नों का प्रयोग किया जाता था।
गुप्तकाल में उज्जैन, विदिश, प्रयाग, पाटिलपुर, वैशाली, मथुरा, कौशम्बी आदि प्रमुख व्यापारिक नगर थे।
गुप्तकाल में चीन, श्रीलंका, अरब, फारस, इथोपिया तथा हिन्द महासागर के द्वीप के साथ विदेशी व्यापार था। चीन का चीनांशुक रेशम भारत के बाजारों में बहुत लोकप्रिय था। चीन से रेशम, अरब और ईरान से घोड़ों, इथोपिया से हाथीदांत आयात करता था।
धार्मिक एवं सामाजिक जीवन
गुप्त सम्राट वैष्णव धर्म के अनुयायी था। विष्णु का वाहन गरूड़ गुप्तों का राजचिन्ह था।
गुप्तकाल का देवगढ़ का दशावतार मंदिर वैष्णव धर्म से संबंधित है।
गुप्त शासकों ने शैव धर्म का भी संरक्षण किया। चन्द्रगुप्त द्वितीय का सेनापति वीरसेन शैव धर्मावलम्बी था जिसने उदयगिरी की गुफाओं का निर्माण कराया था।
गुप्तकाल में शैव के चार सम्प्रदाय थे माहेश्वर, पाशुपन, कापालिक, तथा कालामुख।
गुप्तकाल में विष्णु और शिव की संयुक्त रूप से पूजा करने की परम्परा शुरू हुई जिसे हरिहर कहा गया।
भारत में मंदिरों का निर्माण गुप्तकाल से प्रारंभ हुए।
गुप्तकाल के प्रमुख मंदिरों में देवरानी जेठानी का मंदिर (तालागांव छ.ग.), लक्ष्मण मंदिर (सिरपुर छ.ग.), विष्णु मंदिर (तिगवा जबलपुर म.प्र.) शिव मंदिर (भूमरा नागौदा म.प्र.) है। ये मंदिर ईटों से निर्मित तथा नागर शैली के बने हैं।
सती होने का प्रमाण 510 ई. के भानुगुप्त के एरण अभिलेख में मिलता है।
गुप्तकाल में वेश्यावृत्ति करने वाली महिलाओं को गणिका तथा वृद्ध वेश्याओं को कुट्टनी कहा जाता था।
गुप्त शासकों ने मंदिरों एवं ब्राम्हणों को सबसे अधिक ग्राम अनुदान दिया था।
चतुरंग (शतरंज) गुप्तकाल में भारत में उद्भुत हुआ।
नालंदा विश्वविद्यालय शिक्षा का प्रमुख केन्द्र था। जिसे कुमारगुप्त प्रथम ने बनवाया था।
विज्ञान एवं तकनीक
गुप्तकाल विज्ञान एवं तकनीकी की दृष्टि से काफी उन्नत था। इस काल में गणित, खगोल, रसायन, ज्योतिष, शल्यचिकित्सा, आयुर्वेद आदि का प्रमुख रूप से विकास हुआ।
आर्यभट्ट – पहला भारतीय नक्षत्र वैज्ञानिक थे जिनके अनुसार पृथ्वी अपनी धुरी पर घुमती है व गोल है उसने सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहण की वैज्ञानिक विश्लेषण एवं व्याख्या की। आर्यभट्ट ने अपनी पुस्तक आर्यभट्टियम् में वृत्त, त्रिभुज, दशमलव प्रणाली, बीजगणित तथा त्रिकोणमिति का विवेचना किया। पाई का मान 3.14 बताया जो आधुनिक सिद्धांत के सर्व निकट है। आर्यभट्ट की रचनाओं में सूर्यसिद्धांत, दशगितिक सूत्र, आर्याष्ट शतक ग्रंथ है।
गुप्तकाल के प्रसिद्धि ज्योतिषाचार्य में चन्द्रगुप्त द्वितीय के दरबार के नवरत्न वराहमिहिर हुए इन्होंने पंचसिद्धांतिका, वृहदसंहिता, वृहज्जाक, लघुजातक की रचना की। उन्होंने वर्गमूल तथा घनमूल निकालने की पद्धति तथा खगोल विज्ञान की विवेचना की।
ब्रम्हागुप्त ने गणित, ज्योतिष, खगोलशास्त्र पर ब्रम्हासिद्धांतिका, खण्ड खाद्यक ग्रंथ लिखे। ब्रम्हागुप्त महान वैज्ञानिक थे (भारत का न्यूटन) जिन्होंने न्यूटन के सिद्धांत के पूर्व गुरूत्वाकर्षण के संबंध में लिखा कि पृथ्वी स्वभाव से सभी वस्तुओं को अपनी ओर आकर्षित करती है।
चन्द्रगुप्त द्वितीय के नवरत्नों में धनवंतरी एक प्रसिद्ध आयुर्वेदिक एवं शल्य चिकित्सक थे जिन्होंने नवनीतकम ग्रंथ की रचना की इसमें नुस्खे, सूत्र और उपचार विधियों का उल्लेख है।
आयुर्वेद में वागभट्ट ने अष्टांग ह्दय की रचना की। गुप्तकाल में पलकाण्व ने पशु चिकित्सा पर हस्तायुर्वेद नामक ग्रंथ की रचना की।
गुप्तकाल में धातुओं को रासायनिक क्रियाओं द्वारा पिघलाने तथा ढालने की कला का विकास हुआ महरौली का लौह स्तंभ तथा सुल्तानगंज की बुद्ध की मूर्ति इसका उदाहरण है। गुप्तकाल में विज्ञान व प्रोद्योगिकी में अभूतपूर्व विकास हुआ।
गुप्त कालीन साहित्य
संस्कृत गुप्तकाल की राजकीय भाषा थी।
चन्द्रगुप्त द्वितीय के नवरत्नों में मुख्य रत्न कालिदास (भारत का शेक्सपीयर) जिसने मेघदूतम्, ऋतुसंहार, कुमारसंभव, अभिज्ञानशांकुलतलम्, मालविका अग्निमित्रम्, विक्रमोवर्षीयम् की रचना सभी रचना संस्कृत भाषा में है।
Ancient Books and Authors प्राचीनकाल के प्रमुख ग्रंथ और पुस्तकें
गुप्तकाल में विष्णु शर्मा द्वारा पंचतंत्र (संस्कृत) प्राचीन कालीन साहित्य में सर्वाधिक प्रचलित नीतिकथा है। जिसे पाँच भागों में बाँटा गया है:-
- मित्रलाभ (मित्र प्राप्ति एवं उसके लाभ)
- मित्रभेद (मित्रों से अलगाव व मनमुटाव)
- काकोलुकीयम् (कौओं एवं उल्लुओं की कथा)
- लब्धप्रणाश (वानर और मगरमच्छ की कथा सर्वनाश की स्थिति का वर्णन)
- अपरीक्षित कारक (जल्दबाजी में कदम न उठाना)
गुप्तकाल में विष्णु पुराण, भागवत पुराण, वायु पुराण, मत्स्य पुराण, वाराह पुराण, वामन पुराण की रचना हुई।
गुप्तकाल को हिन्दु धर्म के 18 पुराणों का अंतिम संकलन का काल माना जाता है।
गुप्तकाल में नारद स्मृति की रचना हुई। नारद स्मृति में व्यवहार व न्यायिक विचार की व्याखा है।
याज्ञवलक्य स्मृति जिसमें धर्म, वर्ण, आश्रम, विधि समाज, राज्य आदि पक्षों का उल्लेख है। कायस्थों का सर्वप्रथम वर्णन याज्ञवलक्य स्मृति में ही मिलता है।
कात्यायन ने विधि के चार अंग, धर्म, चरित्र, व्यवहार और राजशासन को बताया।
शुद्रक का मृच्छकटिकम्
अमरसिंह का अमरकोष (संस्कृत का शब्दकोष)
पालकव्य का हास्यायुर्वेद (पशु चिकित्सा ग्रंथ)
वात्स्यायन का कामसूत्र
कामंदक का नीतिसार
भरतमुनि का नाट्यशास्त्र
भास का स्वप्नवासवदत्ता
उपरोक्तानुसार ग्रंथ प्राचीन भारत में यह गुप्तों के समय में साहित्य में महत्वपूर्ण देन है। सांस्कृतिक उपलब्धियों के कारण गुप्तकाल को भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग कहा जाता है।
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