क्या आपको पता है भारत के किस राज्य में चौथा सबसे अधिक विश्व धरोहर स्थल हैं।
भारत में 03 राज्यों में 2-2 विश्व विरासत स्थल है। जिनमें बिहार, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु राज्य जहाँ दो-दो और चौथा सबसे अधिक विश्व धरोहर (विरासत) स्थल हैं।
आईये जानते हैं बिहार, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु में कौन-कौन से विश्व विरासत स्थल हैं, विस्तार से
बिहार के सभी विश्व विरासत (धरोहर) स्थल UNESCO World Heritage Sites in Bihar
बोध गया में महाबोधि मंदिर परिसर वर्ष 2002 (सांस्कृतिक स्थल)
नालंदा, बिहार में नालंदा महाविहार का पुरातात्विक स्थल वर्ष 2016 (सांस्कृतिक स्थल)

बोध गया में महाबोधि मंदिर परिसर
बोध गया में महाबोधि मंदिर परिसर – महाबोधि मंदिर परिसर बिहार के बोधगया में स्थित है, जो पटना से लगभग 96 किलोमीटर और गया से 16 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
बोध गया में स्थित बोधि वृक्ष, जो मूल वृक्ष का वंशज माना जाता है, आज भी परिसर में मौजूद है और तीर्थयात्रियों के लिए आकर्षण का केंद्र है।
यह वह स्थान है जहां लगभग 2500 वर्ष पहले भगवान बुद्ध ने बोधि वृक्ष के नीचे ही ध्यान करते हुए ज्ञान की प्राप्ति की थी।
सम्राट अशोक ने तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में पहला मंदिर और स्मारक स्तंभ बनवाया था, और वर्तमान मंदिर 5वीं-6वीं शताब्दी का है। महाबोधि मंदिर भारत में सबसे पुराने ईंट निर्मित मंदिरों में से एक है, जो गुप्त काल की ईंट की वास्तुकला का एक उत्कृष्ट उदाहरण है।
महाबोधि मंदिर का केन्द्रीय टॉवर की ऊंचाई लगभग 180 फीट है, और इसमें कई प्राचीन संरचनाएं, मूर्तियां और स्तूप शामिल हैं, जो इसके धार्मिक और ऐतिहासिक महत्व को दर्शाते हैं।
महाबोधि मंदिर का केन्द्रीय टावर एक पिरामिडीय आकार का है, जिसके चारों कोनों पर चार छोटे टावर हैं।
महाबोधि मंदिर परिसर बिहार के बोधगया में स्थित है और बौद्ध धर्म के चार प्रमुख तीर्थस्थलों में से एक है, जहां भगवान बुद्ध को बोधि वृक्ष के नीचे ज्ञान की प्राप्ति हुई थी।
यह स्थल यूनेस्को की विश्व धरोहर सूची में शामिल है और बौद्ध अनुयायियों के लिए एक महत्वपूर्ण तीर्थ है।
महाबोधि मंदिर परिसर, बोधगया, बिहार, भारत में स्थित, एक विश्व धरोहर स्थल है, जिसे यूनेस्को ने 2002 में मान्यता दी थी।
यह बौद्ध धर्म के लिए एक अत्यंत पवित्र तीर्थस्थल है, जहां भगवान गौतम बुद्ध को बोधि वृक्ष के नीचे ज्ञान की प्राप्ति हुई थी, जो बौद्ध धर्म की स्थापना का प्रारंभिक बिंदु माना जाता है। यह परिसर न केवल धार्मिक, बल्कि वास्तुशिल्प और सांस्कृतिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है।
महाबोधि मंदिर परिसर का इतिहास मौर्य काल से शुरू होता है, जब सम्राट अशोक ने बोधगया की यात्रा की और एक मठ और मंदिर बनवाया, जो अब गायब हो गया है। उन्होंने बोधि वृक्ष के नीचे हीरे का सिंहासन (वज्रासन) बनवाया, जो 250-233 ईसा पूर्व के बीच की तिथि माना जाता है और आज भी पूजा जाता है।
शुंग काल (185-73 ईसा पूर्व) में, इसके आसपास स्तंभ और रेलिंग जोड़ी गईं, जो बलुआ पत्थर से बनी थीं और 150 ईसा पूर्व की हैं, जिनमें नक्काशीदार पैनल और पदक शामिल हैं।
गुप्त काल (5वीं-6वीं शताब्दी) में, वर्तमान पिरामिडीय संरचना बनाई गई, जो हिंदू मंदिर शैली से मिलती-जुलती है और संभवतः 2वीं या 3वीं शताब्दी के कार्य की बहाली हो सकती है।
12वीं शताब्दी में मुस्लिम तुर्क सेनाओं (कुतुबुद्दीन ऐबक, बख्तियार खिलजी) के आक्रमण के बाद मंदिर नष्ट हो गया और उपेक्षित हो गया, और 15वीं शताब्दी में अंतिम अभिभावक सारिपुत्र नेपाल चले गए।
13वीं और 19वीं शताब्दी में बर्मी शासकों ने इसकी बहाली की, और ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार ने 1880 के दशक में अलेक्जेंडर कनिंघम और जोसेफ डेविड बेगलर के तहत इसे पुनःस्थापित किया, जिसमें पाला काल की बुद्ध की मूर्ति को 1884 में फिर से स्थापित किया गया।
यह बुद्ध के जीवन से जुड़े घटनाओं और बाद की पूजा के लिए असाधारण रिकॉर्ड प्रदान करता है, विशेष रूप से सम्राट अशोक के समय से तथा गुप्त काल की देर की अवधि से पूरी तरह से ईंट से बनी सबसे प्रारंभिक और प्रभावशाली संरचनाओं में से एक, जिसमें नक्काशीदार पत्थर की रेलिंग शामिल हैं।
यह भगवान बुद्ध के जीवन से सीधा संबंध, जहां उन्होंने उच्चतम और पूर्ण अंतर्दृष्टि प्राप्त की, जो मानव विचार और विश्वास को आकार देने वाली घटना थी।
महाबोधि मंदिर परिसर बौद्ध धर्म के चार प्रमुख तीर्थस्थलों में से एक है, जो बुद्ध के जीवन से जुड़े हैं। अन्य तीन में कुशीनगर, लुंबिनी और सारनाथ हैं।
यह स्थान विशेष रूप से बोधि (ज्ञान) की प्राप्ति से संबंधित है, जो बौद्ध दर्शन का मूल है। तीर्थयात्रियों के लिए, यह स्थान ध्यान और आध्यात्मिक अभ्यास का केंद्र है, और हर साल हजारों बौद्ध अनुयायी, विशेष रूप से तिब्बत, श्रीलंका, जापान और थाईलैंड से, यहां दर्शन के लिए आते हैं।
हालांकि, यह स्थल केवल बौद्ध धर्म तक सीमित नहीं है। समय के साथ, यह विभिन्न धर्मों और संस्कृतियों के लिए एक सांस्कृतिक आदान-प्रदान का केंद्र रहा है। उदाहरण के लिए, हिंदू और जैन परंपराओं में भी इस क्षेत्र का उल्लेख मिलता है, और कुछ विद्वान मानते हैं कि इस स्थान का धार्मिक महत्व प्राचीन काल से ही विभिन्न समुदायों के लिए रहा है।
यह अप्रत्याशित है कि एक बौद्ध तीर्थस्थल अन्य धर्मों के साथ इस तरह के सांस्कृतिक संबंध दिखाता है, जो इसकी व्यापक स्वीकृति और प्रभाव को दर्शाता है।
परिसर में कई पवित्र स्थान शामिल हैं, अनिमेषलोचन चैत्य – उत्तर में जहाँ बुद्ध ने दूसरा सप्ताह खड़ा होकर बोधि वृक्ष को देखते हुए बिताया था। रत्नगढ़ चैत्य – उत्तर पूर्व में, जहाँ बुद्ध ने चौथा सप्ताह बिताया। अजापाल निग्रोध वृक्ष – जहाँ बुद्ध ने पांचवाँ सप्ताह ध्यान में बिताया।
कमल (लोटस) तालाब – बाड़े के दक्षिण में स्थित, जहाँ बुद्ध ने छठा सप्ताह बिताया, सातवें पवित्र स्थल के रूप में। जैसे वज्रासन (हीरे का सिंहासन) बुद्ध की थाती, जहां बुद्ध ने ध्यान किया, अशोक की पत्थर की पट्टी से चिन्हित।
इसमें विभिन्न वोटिव स्तूप, नक्काशीदार पत्थर की रेलिंग, और बुद्ध की मूर्तियां भी हैं, जो इसके धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व को बढ़ाती हैं। ये सभी स्थल बौद्ध तीर्थयात्रियों के लिए विशेष महत्व रखते हैं और परिसर की आध्यत्मिकता को बढ़ाते हैं।
महाबोधि मंदिर परिसर को यूनेस्को द्वारा 2002 में विश्व धरोहर स्थल घोषित किया गया था। इसकी मान्यता इसके असाधारण सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्व के कारण दी गई, जो बौद्ध धर्म के विकास और प्रसार में इसकी केंद्रीय भूमिका को दर्शाती है।
यूनेस्को के अनुसार, यह स्थल मानवता की सांस्कृतिक विरासत का एक उत्कृष्ट उदाहरण है, जो बौद्ध धर्म के प्रारंभिक इतिहास और दर्शन को दर्शाता है।
बोध गया का महाबोधि मंदिर परिसर भारत का 23वां विश्व धरोहर स्थल है जिसे यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल के रूप में निम्नलिखित मानदंडों के तहत मान्यता दी गई है –
मानदंड (i) यह 5-6वीं शताब्दी का भव्य मंदिर उस युग में पुरी तहर से विकसित ईंट मंदिरों के निर्माण में मानव रचनात्मक तथा भारतीय स्थापत्य प्रतिभा का उत्कृष्ट उदाहरण है।
मानदंड (ii) महाबोधि मंदिर सदियों से वास्तुकला के विकास में महत्वपूर्ण प्रभाव है।
मानदंड (iii) महाबोधि मंदिर का स्थल बुद्ध के जीवन से जुड़े महत्वपूर्ण घटनाओं का केन्द्र है।
मानदंड (iv) महाबोधि मंदिर के नक्काशीदार पत्थर की बालुस्ट्रेड पत्थर से मूर्तिकला राहत का एक उत्कृष्ट प्रारंभिक उदाहरण है।
मानदंड (vi) महाबोधि मंदिर परिसर का भगवान बुद्ध के जीवन से सीधा संबंध है, यह वह स्थान है जहाँ उन्होंने सर्वोच्च और पूर्ण अंतर्दृष्टि प्राप्त की थी।
बोध गया का महाबोधि मंदिर परिसर साइट के संपत्ति का क्षेत्र 4.86 हेक्टेयर है।
महाबोधि मंदिर परिसर न केवल बौद्ध धर्म के लिए एक पवित्र तीर्थ है, बल्कि मानवता की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक विरासत का एक महत्वपूर्ण जीवित प्रतीक है।
यूनेस्को द्वारा ने वर्ष 2002 में इसे विश्व धरोहर स्थल की सूची में शमिल किया है। इसका विश्व धरोहर दर्जा इसके ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व को दर्शाता है।

नालंदा में नालंदा महाविहार का पुरातात्विक स्थल
नालंदा महाविहार बिहार के नालंदा जिले में स्थित है, जो पटना से लगभग 90 किलोमीटर दक्षिण-पूर्व में और राजगीर से 16 किलोमीटर उत्तर में है।
यह प्राचीन मगध साम्राज्य का हिस्सा था और 3वीं शताब्दी ईसा पूर्व से 13वीं शताब्दी ई. तक लगातार बसा रहा।
यह दुनिया का पहला अंतर्राष्ट्रीय आवासीय विश्वविद्यालय था। जिसमें नागार्जुन, आर्यभट्ट और धर्मकीर्ति जैसे विद्धान भिक्षुओं और शिक्षकों ने अध्ययन कराये जहाँ लगभग 2000 शिक्षकों द्वारा 10,000 छात्र अध्ययन करते थे जिसके कारण यह दुनिया भर में विख्यात था।
नालंदा महाविहार की स्थापना गुप्त सम्राट कुमारगुप्त प्रथम द्वारा 5वीं शताब्दी ई. के अंत में की गई थी। यह विश्वविद्यालय 13वं शताब्दी तक फला-फुला, जब तुर्की सेनाओं के आक्रमण के कारण इसका पतन हुआ।
यह जल्दी ही एक प्रसिद्ध शैक्षिक केंद्र बन गया, जो एशिया भर से छात्रों और विद्वानों को आकर्षित करता था, जिसमें चीन, कोरिया, तिब्बत और दक्षिण-पूर्व एशिया के लोग शामिल थे। यह मठ और विश्वविद्यालय का संयोजन था, जिसमें बौद्ध दर्शन, वेद, व्याकरण, चिकित्सा, तर्क, गणित, खगोल विज्ञान और रसायन शास्त्र जैसे विषय सिखाए जाते थे।
नालंदा महाविहार की लंबाई 800 फीट, चौड़ाई 1600 फीट और यह 30 एकड़ क्षेत्र में फैला हुआ है।
नालंदा की प्रसिद्ध लाइब्रेरी, जिसे धर्मगंज कहा जाता था, नौ मंजिलों की इमारत में थी और इसमें सैकड़ों हज़ारों पांडुलिपियां थीं, जो ज्ञान के संरक्षण और प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती थीं। चीनी यात्री ह्वेन त्सांग, जो 7वीं शताब्दी में नालंदा में अध्ययन करने आए थे, ने इसकी विस्तृत वर्णन किया है, जिसमें इसके सख्त प्रवेश मानदंड और उच्च शैक्षिक मानक शामिल हैं।
12वीं शताब्दी में, तुर्की सेनापति बख्तियार खिलजी ने 1193 ई. में नालंदा पर आक्रमण किया, जिससे इसकी लाइब्रेरी जल गई और कई पांडुलिपियां नष्ट हो गईं। इस आक्रमण ने नालंदा के रूप में एक शैक्षिक केंद्र के पतन को चिह्नित किया, और यह 13वीं शताब्दी तक पूरी तरह से उपेक्षित हो गया।
पुरातात्विक स्थल में 23 हेक्टेयर क्षेत्र में फैले अवशेष शामिल हैं, जिसमें 11 विहार (निवास और शैक्षिक भवन), 14 मंदिर, और कई छोटे मंदिर और वोटिव संरचनाएं हैं। ये संरचनाएं लाल ईंटों से बनी हैं और उत्तर-दक्षिण अक्ष पर व्यवस्थित हैं, जिसमें मंदिर जैसे चैत्य और चतुर्भुज विहार शामिल हैं। साइट पर स्टुको, पत्थर और धातु में बनी कला कार्य भी पाए गए हैं, जो बौद्ध थीम और आकृतियों को दर्शाते हैं।
विहार – ये आवासीय और शैक्षिक भवन हैं, जो एक आंगन के चारों ओर बने हैं। जिसमें एक मुख्य प्रवेश द्वार और आंगन के सामने एक मंदिर है। इनकी वास्तुकला गंधार कला की चतुष्कोणीय स्वतंत्र विहास से विकसित हुई, जो दक्षिण एशिया के अन्य मठवासी शहरों जैसे पहारपुर, विक्रमशिला, जगदाला और ओडांतपुरी से अपनाई गई है।
स्तूप और मंदिर – ये धार्मिक संरचानएं ध्यान और पूजा के लिए उपयोग की जाती थी, और कई स्तूप ईंट और प्लास्टर से बने थे।
कला कार्य – साइट पर स्टुको, पत्थर और धातु में बनी मूर्तियों और सजावटी तत्व पाए गए हैं, जो कला और शिल्प कौशल को दर्शाते हैं।
नालंदा की वास्तुकला ने भारतीय उपमहाद्वीप, दक्षिण एशिया और दक्षिण पूर्व एशिया में कई समान संस्थाओं पर प्रभाव डाला।
बिहार नालंदा महाविहार का पुरातात्विक स्थल भारत का 33वां विश्व धरोहर स्थल है जिसे यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल के रूप में निम्नलिखित मानदंडों के तहत मान्यता दी गई है –
मानदंड (iv) यह योजना, वास्तुकला और कला के सिद्धांतों का एक उत्कृष्ट उदाहरण है, जो बाद में कई समान संस्थाओं द्वारा अपनाया गया।
मानदंड (vi) यह उच्च शिक्षा के केन्द्र के रूप में योग्यता आधरित दृष्टिकोण, और प्रारंभिक मध्यकालीन भारत के सबसे प्राचीन उच्च शिक्षा संस्थान के रूप में महत्वपूण्र है।
बिहार नालंदा महाविहार का पुरातात्विक स्थल साइट के संपत्ति का क्षेत्र 23.00 हेक्टेयर है, जिसमें बफर जोन 57.88 हेक्टेयर है।
नालंदा महाविहार को 2016 में यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल घोषित किया।
नालंदा महाविहार का पुरातात्विक स्थल भारतीय उपमहाद्वीप की शैक्षिक और सांस्कृतिक विरासत का एक गौरवशाली प्रतीक है।
पश्चिम बंगाल के सभी विश्व विरासत (धरोहर) स्थल UNESCO World Heritage Sites in West Bengal
सुंदरबन राष्ट्रीय उद्यान वर्ष 1987 (प्राकृतिक स्थल)
शांति निकेतन वर्ष 2023 (सांस्कृतिक स्थल)
इंडियन माउंटेन रेलवे (भारत के पर्वतीय रेलवे) को संयुक्त रूप से विश्व धरोहर स्थल घोषित किया गया है जिसके अंतर्गत पश्चिम बंगाल में स्थित दार्जिलिंग हिमालयन रेलवे को वर्ष 1999 में तमिलनाडु में स्थित नीलगिरी माउंटेन रेलवे को वर्ष 2005 में तथा हिमाचल प्रदेश में स्थित शिमला-कालका रेलवे को वर्ष 2008 में यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर स्थल की सूची में शामिल किया गया है।

सुंदरबन राष्ट्रीय उद्यान
सुंदरबन राष्ट्रीय उद्यान पंश्चिम बंगाल,में स्थित है और 1987 में यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल घोषित किया गया था।
सुंदरबन राष्ट्रीय उद्यान पश्चिम बंगाल का पहला विश्व धरोहर स्थल है।
सुंदरबन दुनिया का सबसे बड़ा मैंग्रोव वन है, जो गंगा, ब्रह्मपुत्र और मेघना नदियों के डेल्टा में फैला है।
यह रॉयल बंगाल टाइगर, खारे पानी के मगरमच्छ, और 260 से अधिक पक्षी प्रजातियों सहित विविध वन्यजीवों का घर है।
यह नेशनल पार्क, टाइगर रिजर्व, बायोस्फीयर रिजर्व, और रामसर स्थल के रूप में कई संरक्षण दर्जे रखता है।
सुंदरबन राष्ट्रीय उद्यान पश्चिम बंगाल के दक्षिण-पूर्वी हिस्से में स्थित है, जो बंगाल की खाड़ी के पास और बांग्लादेश की सीमा से लगा हुआ है। इसका क्षेत्रफल लगभग 1,330 वर्ग किलोमीटर है और यह गंगा, ब्रह्मपुत्र, और मेघना नदियों के डेल्टा का हिस्सा है, जो दुनिया का सबसे बड़ा मैंग्रोव वन क्षेत्र है।
1987 में, इसे यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल के रूप में मान्यता दी गई थी, जो इसके पारिस्थितिक प्रक्रियाओं और जैव विविधता संरक्षण के लिए उत्कृष्ट सार्वभौमिक मूल्य को दर्शाता है।
पार्क का परिदृश्य जटिल ज्वारीय नदियों, नहरों, और द्वीपों का नेटवर्क है, जिसमें मैंग्रोव वन प्रमुख हैं। ये मैंग्रोव डेल्टा की मिट्टी को स्थिर रखने, कटाव को रोकने, और कई प्रजातियों के लिए आवास प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
पार्क का जलवायु उष्णकटिबंधीय है, जिसमें उच्च आर्द्रता और मानसून सीजन (जून से सितंबर) के दौरान भारी बारिश होती है। ज्वार की सीमा काफी बड़ी है, जो पार्क की पारिस्थितिकी और इसके निवासियों के व्यवहार को प्रभावित करती है।
सुंदरबन राष्ट्रीय उद्यान पश्चिम बंगाल, भारत में एक महत्वपूर्ण पारिस्थितिक संपत्ति है, जो दुनिया के सबसे बड़े मैंग्रोव वन का हिस्सा है।
यह रॉयल बंगाल टाइगर और अन्य दुर्लभ प्रजातियों के लिए प्रसिद्ध है, और इसके अद्वितीय पारिस्थितिक तंत्र ने इसे वैश्विक महत्व का बना दिया है।
पार्क दक्षिण-पूर्वी पश्चिम बंगाल में स्थित है, बंगाल की खाड़ी के पास और बांग्लादेश की सीमा से लगा हुआ है। इसका क्षेत्रफल लगभग 1,330 वर्ग किलोमीटर है, जो गंगा, ब्रह्मपुत्र, और मेघना नदियों के डेल्टा का हिस्सा है।
यह डेल्टा क्षेत्र भारत और बांग्लादेश दोनों में फैला है, और संयुक्त रूप से यह दुनिया का सबसे बड़ा मैंग्रोव वन है।
यह क्षेत्र समुद्र तल से औसतन 7.5 मीटर की ऊंचाई पर है, और इसमें 54 द्वीप शामिल हैं, जिनमें से कई ज्वारीय नदियों और नहरों से घिरे हैं।
सुंदरबन राष्ट्रीय उद्यान को 1973 में सुंदरवन टाइगर रिजर्व के रूप में स्थापित किया गया था, और 1977 में इसे वन्यजीव अभयारण्य घोषित किया गया।
4 मई 1984 को इसे राष्ट्रीय उद्यान का दर्जा दिया गया, और 1987 में इसे यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल के रूप में मान्यता दी गई।
1989 में इसे बायोस्फीयर रिजर्व के रूप में नामित किया गया, और 2019 में इसे रामसर स्थल के रूप में भी मान्यता दी गई, जो इसके कई संरक्षण दर्जों को दर्शाता है।
पार्क का परिदृश्य जटिल ज्वारीय नदियों, नहरों, और द्वीपों का नेटवर्क है, जिसमें मैंग्रोव वन प्रमुख हैं। ये मैंग्रोव डेल्टा की मिट्टी को स्थिर रखने, कटाव को रोकने, और तूफान से तट को बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। पार्क में सात प्रमुख नदियाँ और कई छोटी जलमार्ग हैं, जो डेल्टा को खिलाते हैं, और ज्वार की सीमा 3 से 8 मीटर तक होती है, जो द्वीपों के आकार और पारिस्थितिकी को प्रभावित करती है।
वनस्पति और जैव विविधता
सुंदरवन राष्ट्रीय उद्यान में 78 से अधिक मैंग्रोव प्रजातियाँ पाई जाती हैं, जो इस क्षेत्र को जैविक रूप से उत्पादक बनाती हैं। कुछ उल्लेखनीय प्रजातियाँ हैं
सुंदरी
गेवा
गोरान
हांताल
ये मैंग्रोव नमकीन और ज्वारीय परिस्थितियों के लिए अनुकूलित हैं और एक विविध पारिस्थितिक तंत्र का समर्थन करते हैं।
पार्क विशेष रूप से रॉयल बंगाल टाइगर के लिए प्रसिद्ध है, जिसकी आबादी लगभग 400 के आसपास अनुमानित है, और ये टाइगर मैंग्रोव आवास के लिए अच्छी तरह से अनुकूलित हैं।
सुंदरबन राष्ट्रीय उद्यान में संकटग्रस्त (लुप्तप्राय) प्रजातियाँ – हॉक्सबिल कछुआ, नदी टेरापिन, ओलिव रिडले कछुआ, खारे पानी का मगरमच्छ, रॉयल बंगाल टाइगर, गंगा नदी डॉल्फिन, भारतीय अजगर, मैंग्रोव हॉर्सशू केकड़ा शामिल हैं।
सुंदरबन राष्ट्रीय उद्यान एक नजर में
सुंदरबन राष्ट्रीय उद्यान का कुल क्षेत्र 1330.10 वर्ग किलोमीटर
सुंदरबन राष्ट्रीय उद्यान कब घोषित किया गया – 4 मई 1984
सुंदरबन राष्ट्रीय उद्यान को टाइगर रिजर्व में कब शामिल किया गया – 1973 (सुंदरबन टाइगर रिजर्व का नोटिफिकेशन – 2007 में)
सुंदरबन को वन्यजीव अभ्यारण कब घोषित किया गया – 1977 में
सुंदरबन राष्ट्रीय उद्यान को यूनेस्को द्वारा कब विश्व धरोहर स्थल की सूची में शामिल किया गया – 1987 में
यूनेस्को के मैन एंड बायोस्पीयर (मैन) प्रोग्राम के तहत बायोस्पीयर रिजर्व के रूप में कब मान्यता दिया गया – 2001 में
सुंदरबन राष्ट्रीय उद्यान को रामसर स्थल की सूची में शामिल कब किया गया – 30 जनवरी 2019 में
वनस्पति – प्रजाति संख्या 78 से अधिक मैंग्रोव प्रजातियाँ, जिसमें सुंदरी, गेवा, गोरान, हांताल शामिल हैं।
विशेषता – नमकीन और ज्वारीय परिस्थितियों के लिए अनुकूलित, मिट्टी को स्थिर रखने में मदद।
जीव-जंतु
स्तनधारी – रॉयल बंगाल टाइगर, भारतीय तेंदुआ, मछली खाने वाली बिल्ली, धब्बेदार हिरण।
पक्षी – 260 से अधिक प्रजातियाँ, जिसमें लुप्तप्राय नॉर्डमैन की हरेसहं और चम्मच-नाक वाली चिड़िया शामिल।
सरीसृप – खारे पानी का मगरमच्छ, भारतीय अजगर, मॉनिटर छिपकली।
अन्य – नदी का डॉल्फिन, ओलिव रिडले कछुआ, विभिन्न उभयचर और मछलियाँ।
सुंदरबन राष्ट्रीय उद्यान भारत का 16वां विश्व धरोहर स्थल है जिसे यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल के रूप में निम्नलिखित मानदंड के तहत मान्यता दी गई है –
मानदंड (ix) – सुंदरबन दुनिया में मैंग्रोव वन का सबसे बड़ा क्षेत्र है और बाघों का निवास स्थान है। यह क्षेत्र लगातार ज्वार की क्रिया द्वारा परिवर्तित होने के साथ समुद्री जीवों के लिए एक आर्द्रभूमि नर्सरी और चक्रवातों के विरूद्ध एक बफर के रूप में भूमिका के रूप में मौजूद है।
मानदंड (x) जैव विविधता संरक्षण – सुंदरबन मैंग्रोव के लगभग 78 प्रजतियां के साथ दुनिया की सबसे समृद्व मैंग्रोव वन है। इसके साथ यहाँ बाघों की सबसे बड़ी आबादी और संकटग्रस्त गंगा नदी की डॉल्फिन जलीय स्तनधारी, सरीसृप, समुद्री कछुओं, प्रवासी पक्षियों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है।
सुंदरबन राष्ट्रीय उद्यान के साइट के संपत्ति का क्षेत्र 1,33,010 हेक्टेयर है।
सुंदरबन राष्ट्रीय उद्यान एक अनूठा और अमूल्य पारिस्थितिक स्थल है, जो हिमालयी जैव विविधता और पारिस्थितिक संतुलन को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

शांति निकेतन
शांति निकेतन, पश्चिम बंगाल के बिरभुम जिले में स्थित, 2023 में यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल घोषित किया गया था।
शांति निकेतन रबींद्रनाथ टैगोर द्वारा स्थापित एक शैक्षिक और सांस्कृतिक केंद्र है, जो कला, साहित्य और प्रकृति के एकीकरण के लिए जाना जाता है।
शांति निकेतन भारत का 41वां और पश्चिम बंगाल का तीसरा विश्व धरोहर स्थल है, जो टैगोर की दृष्टि और बंगाल स्कूल ऑफ आर्ट से जुड़ा है।
यह एक जीवित विश्वविद्यालय परिसर है, जहां अभी भी टैगोर की शैक्षिक परंपराएं जारी हैं।
शांति निकेतन बिरभुम जिले के बोलपुर उपखंड में, कोलकाता से लगभग 152 किलोमीटर उत्तर में स्थित है। इसे 1863 में महर्षि देवेंद्रनाथ टैगोर द्वारा स्थापित किया गया था, और बाद में उनके पुत्र रबींद्रनाथ टैगोर ने इसे एक शैक्षिक और कला केंद्र में विकसित किया।
वर्ष 1901 में टैगोर ने पाठा भवना नामक एक स्कूल स्थापित किया, जो 1921 में विश्व-भारती विश्वविद्यालय में विकसित हुआ, जो भारतीय और वैश्विक संस्कृतियों के अध्ययन का केंद्र बन गया।
शांति निकेतन आधुनिक भारतीय शिक्षा और संस्कृति के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह रबींद्रनाथ टैगोर की रचनात्मकता, कला और प्रकृति के साथ सीधे संपर्क पर आधारित शिक्षा प्रणाली का प्रतीक है। यह बंगाल स्कूल ऑफ आर्ट और प्रारंभिक भारतीय आधुनिकता से जुड़ा है, और कई प्रसिद्ध कलाकारों और लेखकों जैसे नंदलाल बोस और रामकिंकर बैज ने यहां काम किया।
यह शिक्षा और सामुदायिक जीवन में एक प्रयोगात्मक बस्ती का उत्कृष्ट उदाहरण है, जो एक समग्र कला कार्य माना जाता है।
यह रबींद्रनाथ टैगोर, बंगाल स्कूल ऑफ आर्ट और प्रारंभिक भारतीय आधुनिकता से जुड़ा है, जो विश्व स्तर पर महत्वपूर्ण सांस्कृतिक और साहित्यिक कार्यों से संबंधित है।
शांति निकेतन अभी भी एक कार्यशील विश्वविद्यालय परिसर है, जहां विश्व-भारती विश्वविद्यालय संचालित होता है।
शांति निकेतन, रबींद्रनाथ टैगोर की दृष्टि और विरासत का प्रतीक है, जो एक शैक्षिक और सांस्कृतिक केंद्र के रूप में स्थापित किया गया था, जो कला, साहित्य और प्रकृति के एकीकरण पर आधारित है।
शांति निकेतन बोलपुर शहर के एक पड़ोस में, बिरभुम जिले के बोलपुर उपखंड में स्थित है, जो कोलकाता से लगभग 152 किलोमीटर उत्तर में है। यह क्षेत्र ग्रामीण पश्चिम बंगाल का हिस्सा है, जो शांत और हरे-भरे परिदृश्य के लिए जाना जाता है। परिसर में विभिन्न इमारतें, बगीचे और खुले स्थान शामिल हैं, जो टैगोर की शैक्षिक दृष्टि को दर्शाते हैं।
शांति निकेतन की स्थापना 1863 में महर्षि देवेंद्रनाथ टैगोर द्वारा की गई थी, जिन्होंने इस क्षेत्र में एक अतिथि गृह बनाया और इसे शांति निकेतन नाम दिया, जिसका अर्थ है शांति का निवास। यह क्षेत्र पहले भुबनदंगा के नाम से जाना जाता था, लेकिन देवेंद्रनाथ ने इसे ध्यान और शांति के लिए उपयुक्त पाया।
रबींद्रनाथ टैगोर, जो नोबेल पुरस्कार विजेता कवि और दार्शनिक थे, ने अपने पिता की दृष्टि को आगे बढ़ाया। 1901 में, उन्होंने पाठा भवना नामक एक स्कूल स्थापित किया, जो खुली हवा में कक्षाओं और प्रकृति के साथ सीधे संपर्क पर आधारित था। 1921 में, इस स्कूल को विश्व-भारती विश्वविद्यालय में विकसित किया गया, जो भारतीय और वैश्विक संस्कृतियों के अध्ययन का केंद्र बन गया।
विश्व-भारती को 1951 में भारत सरकार द्वारा राष्ट्रीय महत्व का संस्थान घोषित किया गया।
शांति निकेतन आधुनिक भारतीय शिक्षा और संस्कृति के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। टैगोर की शिक्षा प्रणाली रचनात्मकता, कला और प्रकृति के साथ सीधे संपर्क पर आधारित थी, जो पारंपरिक भारतीय परंपराओं और पश्चिमी विचारों का मिश्रण थी। यह स्थान कई कलाकारों, लेखकों और विचारकों का केंद्र रहा है, जिन्होंने आधुनिक भारतीय कला, साहित्य और संगीत के विकास में योगदान दिया।
प्रसिद्ध हस्तियां जैसे नंदलाल बोस, रामकिंकर बैज, और रवि शंकर ने यहां अध्ययन या शिक्षण किया। बंगाल स्कूल ऑफ आर्ट और प्रारंभिक भारतीय आधुनिकता के लिए यह एक महत्वपूर्ण केंद्र रहा है, जो भारतीय कला को पुनर्जीवित करने और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसे प्रस्तुत करने में मदद की।
शांति निकेतन की वास्तुशिल्प शैली को पैन-एशियाई आधुनिकता के रूप में वर्णित किया गया है, जो प्राचीन, मध्यकालीन और लोक परंपराओं से प्रेरित है।
इमारतें प्रकृति के साथ सामंजस्य में डिज़ाइन की गई हैं, जिसमें ईंट, मिट्टी, कोयला टार, जीवित वृक्ष, बलुआ पत्थर, कांच, कास्ट आयरन, घास, लकड़ी, बांस, लेटराइट, प्रीकास्ट कंक्रीट और सुदृढ़ कंक्रीट जैसे सामग्री का उपयोग किया गया है।
यह शैली ब्रिटिश औपनिवेशिक और यूरोपीय आधुनिकता से भिन्न है और टैगोर की संस्कृतियों की एकता की मान्यता को दर्शाती है।
शांति निकेतन के प्रमुख विशेषताएँ
आश्रम -देवेंद्रनाथ टैगोर द्वारा स्थापित प्रारंभिक बस्ती, जहां ध्यान और शांति का केंद्र था।
उत्तरायण- रबींद्रनाथ टैगोर का निवास, जिसमें कई इमारतें शामिल हैं, जैसे श्यामली, उदयान, और गुहा घर।
कला-भवना – कला कॉलेज, जो आधुनिक भारतीय कला के विकास में महत्वपूर्ण योगदान देता है।
छत्तीम ताला – वह स्थान जहां टैगोर ने शांति निकेतन की स्थापना की थी।
रबिंद्र भवना – टैगोर की जीवन और कार्य को समर्पित स्मारक।
विश्व-भारती परिसर – विभिन्न इमारतें, बगीचे और खुले स्थान, जो टैगोर की शैक्षिक दृष्टि को दर्शाते हैं।
इन क्षेत्रों में खुली हवा में कक्षाएं, बगीचे और मूर्तियां शामिल हैं, जो प्रकृति और कला के एकीकरण को दर्शाते हैं।
शांति निकेतन भारत का 41वां विश्व धरोहर स्थल है जिसे यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल के रूप में निम्नलिखित मानदंडों के तहत मान्यता दी गई है –
मानदंड (iv) -यह शिक्षा और सामुदायिक जीवन में एक प्रयोगात्मक बस्ती का उत्कृष्ट उदाहरण है, जो एक समग्र कला कार्य माना जाता है। यह टैगोर की शैक्षिक दृष्टि का प्रतीक है, जहां कला और प्रकृति शिक्षा का हिस्सा हैं।
मानदंड (vi) – यह रबींद्रनाथ टैगोर, बंगाल स्कूल ऑफ आर्ट और प्रारंभिक भारतीय आधुनिकता से सीधे जुड़ा है, जो विश्व स्तर पर महत्वपूर्ण सांस्कृतिक और साहित्यिक कार्यों से संबंधित है।
शांति निकेतन साइट के संपत्ति का क्षेत्र 36 हेक्टेयर है, जिसमें बफर जोन 537.73 हेक्टेयर है।
वर्ष 2023 में, शांति निकेतन को यूनेस्को विश्व धरोहर सूची में शामिल किया गया, जो इसके सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्व को दर्शाता है।
शांति निकेतन पर्यटकों के लिए एक लोकप्रिय स्थान है, जहां वे टैगोर की विरासत, कला और प्रकृति का अनुभव कर सकते हैं। यह क्षेत्र अपने सांस्कृतिक त्योहारों, जैसे बसंत उत्सव और पौष उत्सव, के लिए भी जाना जाता है, जो स्थानीय समुदायों और विश्वविद्यालय के छात्रों द्वारा मनाए जाते हैं।
तमिलनाडु के सभी विश्व विरासत (धरोहर) स्थल UNESCO World Heritage Sites in Tamil Nadu
महाबलीपुरम में स्मारकों का समूह वर्ष 1984 (सांस्कृतिक स्थल)
महान जीवित चोल मंदिर वर्ष 1987 तथा विस्तार 2004 (सांस्कृतिक स्थल)
इंडियन माउंटेन रेलवे (भारत के पर्वतीय रेलवे) को संयुक्त रूप से विश्व धरोहर स्थल घोषित किया गया है जिसके अंतर्गत पश्चिम बंगाल में स्थित दार्जिलिंग हिमालयन रेलवे को वर्ष 1999 में तमिलनाडु में स्थित नीलगिरी माउंटेन रेलवे को वर्ष 2005 में तथा हिमाचल प्रदेश में स्थित शिमला.कालका रेलवे को वर्ष 2008 में यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर स्थल की सूची में शामिल किया गया है। (सांस्कृतिक स्थल)
पश्चिमी घाट को संयुक्त रूप से वर्ष 2012 में विश्व धरोहर स्थल घोषित किया गया है। जिसके अंतर्गत भारत के 06 राज्यों में में इसका विस्तार है। जिसमें गुजरात, महाराष्ट्र, गोवा, कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल के क्षेत्र शामिल हैं। (प्राकृतिक स्थल)

महाबलीपुरम में स्मारकों का समूह
महाबलीपुरम में स्मारकों का समूह भारत के तमिलनाडु के तटीय शहर महाबलीपुरम में पल्लव राजाओं द्वारा 7वीं और 8वीं शताब्दी में बनवाया गया कला और वास्तुकला का उत्कृष्ट उदाहरण है, जो प्राचीन भारतीय सभ्यता की समृद्धि को दर्शाता है।
महाबलीपुरम में स्मारकों का समूह तमिलनाडु का पहला विश्व धरोहर स्थल जिसे वर्ष 1984 में विश्व धरोहर स्थल के रूप में नामित किया गया है।
यह चेन्नई से लगभग 60 किलोमीटर दक्षिण में बंगाल की खाड़ी के कोरोमंडल तट पर है स्थित है।
महाबलीपुरम स्मारक समूह, महाबलीपुरम जिसे मामल्लापुरम, मामल्ला का शहर का जाता है। मामल्ला का अर्थ है महान पहलवान, और यह 7वीं शताब्दी के पल्लव शासक राजा नरसिंह वर्मन प्रथम के उपाधि के नाम पर रखा गया है।
नरसिंवर्मन प्रथम मामल्ल कहा जाता है, 640 ई. में पल्लव राजगद्दी पर बैठा उसने पुलकेशिन द्वितीय को पराजित कर अपने पिता को मिली हार का बदला दिला और महाबलीपुरम् में अनके भवनों के निर्माण का कार्य प्रारंभ किया। इसलिए महाबलीपुरम् को मामल्लपुरम् कहा गया।
प्राचीन ग्रंथों में मामल्लापट्टन, मावलीपुरम, मावलीवरम, मावेलिपुर, मौवेलिपुरम और महाबलीपुर शामिल हैं, जो सभी एक महान पहलवान शहर या महाबली जो बौने वामन (विष्णुजी के अवतार) द्वारा पराजित राक्षस राजा थे।
तमिल शब्द मल्लल (समृद्धि) से लिया गया है और यह दक्षिण भारत और दक्षिण पूर्व एशिया के लिए एक प्राचीन आर्थिक केंद्र होने को दर्शाता है। इसे यूरोपीय नाविकों द्वारा सात पैगोडा के रूप में जाना जाता था, जो सात हिंदू मंदिरों की मीनारें देखने के बाद तट पर उतरे थे।
महाबलीपुरम (या मामल्लपुरम) में पल्लव वंश, जिसने 6वीं और 9वीं शताब्दी ई. के बीच इस क्षेत्र पर शासन किया था, ने इन ऐतिहासिक इमारतों का निर्माण किया था।
इस समूह में विभिन्न प्रकार के स्मारक शामिल हैं, जैसे चट्टान-कटे गुफा मंदिर, एकल चट्टान से बने मंदिर, राहत मूर्तियां, और संरचनात्मक मंदिर।
महाबलीपुरम के स्मारक स्थल
महाबलीपुरम के रथ मंदिर
महाबलीपुरम के रथ मंदिर पांच एकाश्म (एक ही चट्टान से तराशे गए) संरचनाएं हैं। जिन्हें पांच रथ (Pancha Rathas) के नाम से जाना जाता है। ये रथ एक ही चट्टान (Monolith) को काटकर बनाए गए हैं, जो भारतीय रॉक-कट वास्तुकला का उत्कृष्ट उदाहरण हैं।
इनका निर्माण 7वीं शताब्दी में पल्लव राजा नरसिंहवर्मन प्रथम (महामल्ल) के शासनकाल में हुआ था।
प्रत्येक रथ की संरचना अलग-अलग शैली में है और ये हिंदू मंदिर वास्तुकला के प्रारंभिक रूप को दर्शाते हैं।
ये रथ पूर्ण मंदिर नहीं हैं, बल्कि अधूरे छोड़े गए प्रतीत होते हैं, फिर भी इनकी नक्काशी और डिज़ाइन बेजोड़ हैं।
इन्हें पांडवों और द्रौपदी के नाम पर नामित किया गया है, जो महाभारत के पाँच भाइयों और उनकी पत्नी से संबंधित हैं। ये हैं धर्मराज रथ, भीम रथ, अर्जुन रथ, नकुल-सहदेव रथ, और द्रौपदी रथ। रथ मंदिर (पांच रथ)
1- धर्मराज रथ (Dharmaraja Ratha)
यह पांचों रथों में सबसे बड़ा और सबसे भव्य है। यह 35.67 फीट ऊँचा है। यह तीन मंजिला संरचना है, जो दक्षिण भारतीय मंदिर वास्तुकला की द्रविड़ शैली का प्रारंभिक रूप दर्शाती है।
इसका आधार चौकोर (26 गुण 20 फीट) है, और ऊपर की ओर विमान (शिखर) है। शिखर पर छोटे-छोटे मंडप और नक्काशीदार आकृतियाँ हैं।
इसमें अर्धनारीश्वर, हरिहर (आधा शिव आधा विष्णु), नटराज, विनाधारा (वीणा के साथ शिव) वृषभान्तिका (नंदी के साथ शिव) सबसे ऊपरी सतह पर दक्षिणामूर्ति, सूर्य और चन्द्रमा का चित्र निर्माण किया गया है।
इस रथ में सबसे अधिक विस्तृत नक्काशी और शिलालेख हैं, जो इसे अन्य रथों से अलग करते हैं। यह रथ भगवान शिव को समर्पित है।
2- भीम रथ (Bhima Ratha)
यह रथ अपने अनोखे आकार के लिए जाना जाता है, जो एक बैरल-वॉल्टेड (गुंबदनुमा छत) संरचना जैसा दिखता है और लकड़ी के काम का स्मरण कराता है। यह दो मंजिला है और अन्य रथों की तुलना में कम सजावटी है।
इसका आकार आयताकार है, और छत लंबी और घुमावदार हैं। मंदिर में कोई मूर्ति नहीं है, लेकिन छत और आधार पर साधारण नक्काशी है।
यह अधूरा प्रतीत होता है, क्योंकि गर्भगृह में कोई देवता की मूर्ति नहीं है। ऐसा लगता है कि इसे एक विश्राम गृह या ध्यान कक्ष के रूप में डिज़ाइन किया गया था।
इसका आंतरिक भाग लेटे हुए विष्णु (अनंतस्याना को रखने के लिए) लगता है जिसके कारण इसे भगवान विष्णु से जोड़ा जाता है।
3- अर्जुन रथ (Arjuna Ratha)
यह रथ आकार में छोटा और संरचना में साधारण है। यह एक मंजिला है और धर्मराज रथ की शैली से मिलता-जुलता है।
इसका आधार चौकोर है, और शिखर पिरामिडनुमा है। यह द्रविड़ मंदिरों के प्रारंभिक रूप का प्रतिनिधित्व करता है।
रथ की दीवारों 04 द्वारपाल हैं। इसमें भगवान शिव की मूर्ति और नंदी (शिव का वाहन) की आकृति प्रमुख है। दीवारों पर सूक्ष्म नक्काशी है।
इसके सामने एक छोटा नंदी का चित्रण है, जो इसे शिव मंदिर की पहचान देता है।
अर्जुन रथ के उत्तर पश्चिम में एक हाथी खड़ा है।
4- नकुल-सहदेव रथ (Nakula and Sahadeva Ratha)
यह रथ अन्य चार रथों से थोड़ा अलग दिशा में स्थित है और इसका आकार अनोखा है। यह एकमात्र रथ है जो पीछे की ओर झुका हुआ प्रतीत होता है।
इसका आकार अर्द्धवृत्ताकार हैं, छत घुमावदार और लंबी है।
इसमें हाथी की एक बड़ी मूर्ति पास में तराशी गई है, जो इसे विशिष्ट बनाती है।
यह अधूरा छोड़ा गया प्रतीत होता है। इसका आकार और डिज़ाइन इसे अन्य रथों से अलग करते हैं।
इसे भगवान इंद्र से जोड़ा जाता है, क्योंकि हाथी उनका प्रतीक है। रथों के उत्तर पूर्व में एक खड़ा हाथी और अर्जुन रथ हैं।
5- द्रौपदी रथ (Draupadi Ratha)
द्रौपदी रथ अर्जून रथ के उत्तर में 11 गुणा 11 फीट है। द्रौपदी की छवि को समर्पित की गई है। यह सबसे छोटा रथ है और अपनी सादगी और सुंदरता के लिए जाना जाता है। यह एक छोटे झोपड़े या कुटी जैसा दिखता है।
इसका आधार चौकोर है, और छत घुमावदार है। इसका डिजाइन नागा शैली का मंदिर है। रथ में देवी दुर्गा की मूर्ति है, जो इसे एक शक्ति मंदिर बनाती है। बाहर की दीवारों पर पहरेदारों और भक्तों की आकृतियाँ हैं।
इसके पास शेर की एक मूर्ति है। यह स्पष्ट रूप से देवी दुर्गा को समर्पित है।
महाबलीपुरम् के गुफा मंदिर
1- वराह गुफा मंदिर
7वीं शताब्दी में निर्मित वराह गुफा मंदिर भगवान विष्णु के वराह अवतार को समर्पित है।
यह मंदिर दीवारों पर उत्कृष्ट नक्काशी है, जिसमें वराह अवतार द्वारा पृथ्वी को समुद्र से बचाते हुए और लक्ष्मी के साथ उनकी छवि दिखाई गई है।
अन्य मूर्तियां जैसे गंगा का अवतरण और दुर्गा की छवि भी यहाँ देखी जा सकती हैं।
वराह गुफा मंदिर का प्रवेश द्वार के अग्रभाग में 02 स्तंभ और 02 भित्तिस्तंभ हैं।
गुफा की पिछली दीवार में एक चौकोर मंदिर है जो चट्टान के अंदर, फर्श से थोड़ा ऊपर की ओर निकला हुआ है। कोनों पर बने द्वारपालों के साथ स्तंभ हैं, और ऊपरी तख्तों पर गण और हंसों की पट्टियाँ हैं।
गुफा की भीतरी दीवार का उत्तरी पैनल विष्णु का वामन अवतार भूमि को पाताल के पानी से बचाता चित्रण है। पैनल के अन्य पात्रों में ब्रह्मा, नारद, सूर्य, चंद्र शामिल हैं।
गर्भगृह के उत्तर में दीवार पर गजलक्ष्मी हैं। पैनल में भागते हुए, भयभीत गण, एक शेर उनका वाहन और एक मृग को और गजलक्ष्मी को कमल पर योग आसन में बैठे हुए दिखाया गया है, उनके हाथ में दो कमल की कलियाँ हैं। गहनों से लदी, दुर्गा ने पत्र कुंडल पहने हैं चौकोर गजलक्ष्मी पैनल में पात्रों को एक गोलाकार मंडल में व्यवस्थित किया गया है।
2- महिषासुरमर्दिनी गुफा
महिषासुरमर्दिनी गुफा साइट के दक्षिणी छोर पर स्थित है। मंदिर अधूरा है लेकिन जो नक्काशी की गई है वह तमिल मंदिर रॉक कला में सर्वश्रेष्ठ का प्रतिनिधित्व करती है। आयताकार मंडप के सामने 06 स्तंभ है।
मंडप में 03 मंदिर कक्ष हैं जो एक केंद्रीय, समलम्बाकार हॉल से जुड़े हैं। केंद्रीय मंदिर में सोमस्कंद की एक बड़ी चट्टान है, जिसमें शिव सुखासन (पैर मोड़कर) योग मुद्रा में बैठे हैं और उनके बगल में पार्वती शिशु स्कंद के साथ हैं। उनके पीछे ब्रह्मा, विष्णु और सूर्य खड़े हैं।
इस गुफा में देवी दुर्गा की महिषासुर पर विजय की नक्काशी प्रमुख है।
इसके अलावा यहाँ विष्णु की शयन मुद्रा में एक सुंदर मूर्ति भी है।
मंदिर हॉल की उत्तरी दीवार पर महिषासुरमर्दिनी चट्टान पर नक्काशी है, जो ममल्लापुरम स्मारकों में सबसे जटिल नक्काशी में से एक है। हॉल की दक्षिणी दीवार पर मधु और कैटभ के साथ अनंतशायी विष्णु कथा की नक्काशी है।
नक्काशियों में गति और भावनाओं का जीवंत चित्रण देखने को मिलता है।
3- आदि वराह गुफा मंदिर
यह भी वराह अवतार को समर्पित है और इसमें पल्लव राजाओं के शिलालेख मिलते हैं।
यहाँ 02 द्वारपालों की मूर्तियाँ और अन्य देवी-देवताओं की नक्काशियाँ देखने योग्य हैं।
4- धर्मराज गुफा मंदिर
धर्मराज गुफा मंदिर, जिसे अत्यंतकामा गुफा मंदिर के नाम से भी जाना जाता है, महिषमर्दिनी गुफा के पास मामल्लपुरम पहाड़ी के दक्षिण की ओर है। अग्रभाग में 02 स्तंभ और 02 भित्तिस्तंभ हैं।
आंतरिक कक्ष 03 मंदिर कक्षों की ओर जाता है। केंद्रीय गर्भगृह, जो शिव लिंग को समर्पित सबसे बड़ा है, में 02 पुरुष द्वारपाल हैं। मंदिर में चौदह-पंक्ति का संस्कृत शिलालेख है।
5- रामानुज गुफा मंदिर
सबसे परिष्कृत और पूर्ण गुफा मंदिरों में से एक, रामानुज में 03 कक्ष थे। रामानुज गुफा में एक आयताकार अर्ध मंडप है, जो स्तंभों की एक पंक्ति से चिह्नित है। तीन कक्ष ब्रह्मा, शिव (केंद्रीय कक्ष) और विष्णु, या शिव के तीन अस्पष्ट रूपों को समर्पित थे।
मुख्य मंडप में दक्षिणी पैनल में संभवतः दुर्गा थीं। कोई भी छवि नहीं बची है; केवल धुंधले अवशेष ही देखे जा सकते हैं, क्योंकि अधिकांश दीवार की राहतें छेनी से हटा दी गई थीं।
कोनेरी मंडप
कोनेरी मंडप, शिव को समर्पित है, में पाँच कक्ष (मंदिर) हैं जो इसके मुख्य हॉल से जुड़े हैं। इसका नाम सामने स्थित कोनेरी-पल्लम टैंक के कारण रखा गया है। मामल्लपुरम में मुख्य पहाड़ी के पश्चिमी भाग में उकेरी गई, इसके अग्रभाग में एक प्रस्तर स्तंभ है। मंदिर में चार स्तंभों की दो पंक्तियाँ और दो भित्तिस्तंभ हैं।
कृष्ण मंडप
कृष्ण मंडप एक परिष्कृत गुफा है, जिसमें बड़े पैनल हिंदू पौराणिक कथाओं और 7वीं शताब्दी के तमिलनाडु की संस्कृति को दर्शाते हैं। मंदिर गंगा अवतरण बेस-रिलीफ के पास है। इसके अग्रभाग में चार सिंहीय पौराणिक आकृतियाँ व्याल हैं, जो खंभे पकड़े हुए हैं, और दो भित्तिचित्र हैं। उनके पीछे स्तंभों की एक और पंक्ति है। कृष्ण गोवर्धन पर्वत को थामे हुए हैं, जिसके एक भाग में लोग, मवेशी और अन्य जानवर हैं।
6- अतीरानाचंदा गुफा मंदिर
7वीं शताब्दी का अतिरानाचंदा गुफा मंदिर मामल्लापुरम के उत्तर में है । अग्रभाग है, जिसमें चौकोर सादुरम (आधार) वाले दो अष्टकोणीय स्तंभ और दो चार-तरफा स्तंभ हैं। अग्रभाग के पीछे एक अर्ध-मंडप और एक छोटा, चौकोर गर्भगृह है। अग्रभाग के सामने खाली छेद हैं।
गर्भगृह के प्रवेश द्वार के दोनों ओर दो शैव द्वारपाल हैं । अंदर एक बाद में निर्मित काले, पॉलिश किए गए, 16-पक्षीय, तंत्र- शैली के शिवलिंग हैं। गर्भगृह की पिछली दीवार पर शिव, पार्वती और पार्वती की गोद में शिशु स्कंद का एक चौकोर सोमस्कंद बेस-रिलीफ पैनल है। दो अन्य सोमस्कंद पैनल अर्ध-मंडप हॉल की दीवारों पर हैं।
महिषासुरमर्दिनी दुर्गा की कथा के तीन-बाई-छह-फुट शक्ति चट्टान राहत के साथ एक शिलाखंड है। मंदिर में दो लिपियों में एक समान, 16-पंक्ति का संस्कृत शिलालेख हैरू दक्षिण की दीवार पर दक्षिण भारतीय ग्रंथ वर्णमाला और उत्तर की दीवार पर उत्तर भारतीय नागरी लिपि । शिलालेखों में शिव, पार्वती और स्कंद को समर्पित एक शिलालेख है।
7- त्रिमूर्ति गुफा मंदिर
यह मंदिर हिंदू त्रिमूर्ति (ब्रह्मा, विष्णु, और शिव) को समर्पित है।
तीन अलग-अलग कक्षों में इन देवताओं की मूर्तियाँ और नक्काशियाँ हैं।
यहाँ की वास्तुकला सादगी और सुंदरता का संयोजन है।
शोर मंदिर (Shore Temple)
यह मंदिर बंगाल की खाड़ी के तट पर स्थित है और यह संरचना दक्षिण भारत के सबसे पुराने मंदिरों में से एक है।
इसका निर्माण 8वीं शताब्दी में पल्लव राजा नरसिंहवर्मन द्वितीय के समय हुआ था।
मंदिर में भगवान शिव और विष्णु को समर्पित दो गर्भगृह हैं। यहाँ की लहरों और समुद्री हवाओं ने मंदिर की संरचना को प्रभावित किया है, फिर भी यह अपनी भव्यता बनाए हुए है।
शोर मंदिर परिसर मामल्लपुरम तट के पास है। इसमें एक बड़ा मंदिर, दो छोटे मंदिर और कई छोटे तीर्थस्थल, खुले हॉल, प्रवेश द्वार और अन्य तत्व शामिल हैं, जिनमें से अधिकांश रेत से दबे हुए हैं। मुख्य मंदिर दो-स्तरीय, मिश्रित दीवार के भीतर है, जिसके चारों ओर शिव के वाहन, नंदी की मूर्तियाँ हैं।
बड़े मंदिर के मूल प्रांगण में एक छोटा मंदिर। परिसर में अन्य दो मंदिर मुख्य मंदिर के पीछे हैं, एक दूसरे के आमने-सामने हैं और उन्हें राजसिंहेश्वर (या नृपतिसिंह पल्लव विष्णुगृह) और क्षत्रियसिंहेश्वर के नाम से जाना जाता है। मुख्य मंदिर में विष्णु और दुर्गा की प्रतिमाएँ हैं। मंदिर की पिछली दीवारों पर शिव, पार्वती और शिशु स्कंद को दर्शाते हुए सोमस्कंद बेस-रिलीफ पैनल उकेरे गए हैं।
इसकी अधिकांश नंदी मूर्तियाँ खंडहर में थीं और मुख्य मंदिर परिसर के चारों ओर बिखरी हुई थीं।
शिव मंदिरों का निर्माण 8वीं शताब्दी की शुरुआत में हुआ था और इन्हें पल्लव राजा राजसिंह (700-728) के शासनकाल का माना जाता है। खुदाई के बाद मिले लेटे हुए विष्णु की छवि वाले विष्णु मंदिर का निर्माण 7वीं शताब्दी का बताया गया है।
सूर्याेदय और सूर्यास्त के समय यहाँ का दृश्य अत्यंत मनोरम होता है।
ओलाक्कनेश्वर मंदिर
ओलक्कनेश्वर मंदिर महिषमर्दिनी गुफा मंदिर के ऊपर चट्टान पर स्थित है। 8वीं शताब्दी की शुरुआत में ग्रे ग्रेनाइट को ब्लॉकों में काटकर बनाया गया यह मंदिर राजा राजसिंह को समर्पित है। यह बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गया है, और इसका अधिरचना गायब है। पश्चिमी प्रवेश द्वार द्वारपालों से घिरा हुआ है। मंदिर की दीवारों पर रामायण से रावणानुग्रह की कथा और दक्षिणामूर्ति (योग शिक्षक के रूप में शिव) की एक नक्काशी है।
मुकुंदनयनार मंदिर
मुकुंदनयनार मंदिर में रथ जैसी वास्तुकला है। मामल्लपुरम में मुख्य पहाड़ी के उत्तर में, 8वीं शताब्दी की शुरुआत में राजा राजसिम्हा द्वारा निर्मित। एक साधारण चौकोर डिज़ाइन वाला मंदिर पूर्व की ओर उन्मुख है और इसका अग्रभाग दो पतले, नालीदार, गोल स्तंभों द्वारा समर्थित है। इसका गर्भगृह ग्रेनाइट की दीवारों से घिरा हुआ है। जिसके ऊपर एक अष्टकोणीय गुंबद है। गर्भगृह के ऊपर शिखर बनाने के लिए अधिरचना के अंदर का भाग काटा गया है। गर्भगृह में एक चौकोर पैनल है, परन्तु छवि गायब है।
चट्टान राहतें
अर्जुन की तपस्या (Arjuna’s Penance) या गंगा का अवतरण
यह महाबलीपुरम में मुख्य स्मारकों के समूह में स्थित है, जो तट मंदिर और गुफा मंदिरों के पास है।
यह 7वीं शताब्दी में पल्लव वंश के शासनकाल के दौरान बनाया गया, संभवतः नरसिंहवर्मन (मामल्ल) के समय।
यह एक विशाल चट्टान पर उकेरी गई नक्काशी है, जो लगभग 89 फीट लंबी और 30 फीट ऊँची है, जो इसे विश्व की सबसे बड़ी ओपन-एयर रॉक रिलीफ में से एक बनाती है।
यह विशाल चट्टान दो हिस्सों में बँटी हुई है, जिसमें एक प्राकृतिक दरार इसे विभाजित करती है। इस दरार को नक्काशी में गंगा नदी के अवतरण के प्रतीक के रूप में इस्तेमाल किया गया है।
इसमें दो संभावित कथाएँ चित्रित हैं एक अर्जुन की तपस्या, जो महाभारत से संबंधित है, और दूसरी गंगा के पृथ्वी पर अवतरण की कथा।
गंगा का अवतरण एक व्याख्या के अनुसार, यह नक्काशी भगीरथ की तपस्या को दर्शाती है, जिसके कारण गंगा स्वर्ग से पृथ्वी पर अवतरित हुईं। भगवान शिव ने गंगा के वेग को अपनी जटाओं में संभाला, जिसे यहाँ चित्रित किया गया है।
अर्जुन की तपस्या दूसरी व्याख्या के अनुसार, यह महाभारत के अर्जुन की तपस्या को दिखाती है, जब उन्होंने भगवान शिव से पाशुपतास्त्र प्राप्त करने के लिए तप किया था।
एक तपस्वी (संभवतः भगीरथ या अर्जुन) को एक पैर पर खड़े होकर तप करते हुए दिखाया गया है, जो इस नक्काशी का केंद्रीय आकर्षण है, पास में शिव की आकृति है, जो तपस्वी को आशीर्वाद देते हुए दिखाई देती है। गंगा और नाग दरार के ऊपरी हिस्से में नाग-नागिन की मूर्तियाँ हैं, जो गंगा के जल के साथ नीचे उतरते हुए प्रतीत होती हैं। देवता, ऋषि और जानवर नक्काशी में सूर्य, चंद्र, गंधर्व, किन्नर, ऋषि, और विभिन्न जानवर (हाथी, बिल्ली, बंदर, हिरण आदि) शामिल हैं, जो इसे जीवंत बनाते हैं।
इसमें प्राकृतिक दरार का उपयोग चट्टान की मध्य में मौजूद प्राकृतिक दरार को गंगा के जलप्रवाह के रूप में दर्शाया गया है। प्राचीन काल में यहाँ से पानी बहाया जाता था ताकि यह गंगा के अवतरण का प्रभाव पैदा करे।
इसमें नक्काशी के निचले हिस्से में दो बड़े हाथियों की मूर्तियाँ हैं, जो अपने बच्चों के साथ दिखाए गए हैं। यह भारतीय कला में हाथियों का सबसे जीवंत और वास्तविक चित्रण माना जाता है।
यह नक्काशी अधूरी मानी जाती है, क्योंकि इसके कुछ हिस्सों में काम पूरा नहीं हुआ।
प्राचीन काल में यहाँ से पानी बहाकर प्रदर्शन किया जाता था, जो इसे एक जीवंत मंच बनाता था।
इसका आकार और विवरण इसे भारत की सबसे बड़ी और सबसे जटिल रॉक रिलीफ में से एक बनाते हैं।
महाबलीपुरम में सबसे प्रसिद्ध रॉक रिलीफ गंगा का अवतरण ( जिसे अर्जुन की तपस्या या भगीरथ की तपस्या के रूप में भी जाना जाता है ) है, जो सबसे बड़ी खुली हवा में रॉक रिलीफ है। गंगा अवतरण को दुनिया के सबसे बड़े बेस-रिलीफ कार्यों में से एक माना जाता है।
महाबलीपुरम का स्मारक समूह भारत का 05 वां विश्व धरोहर स्थल है जिसे यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल के रूप में निम्नलिखित मानदंडों के तहत मान्यता दी गई है –
मानदंड (i) यह मानव रचनात्मक प्रतिभा का एक उत्कृष्ट उदाहरण है।
मानदंड (ii) इसका समय के साथ या एक सांस्कृतिक क्षेत्र में वास्तुकला या स्मारक कला के विकास पर बड़ा प्रभाव रहा है।
मानदंड (iii) यह एक सांस्कृतिक परंपरा या सभ्यता का अद्धितीय या कम से कम अपवादात्मक साक्ष्य है, जो जीवित है या लुप्त हो गई है।
मानदंड (vi) यह घटनाओं, जीवित परंपराओं, विचारों या मान्यताओं से सीधे या स्पष्ट रूप से जुड़ा है, जो कला और साहित्य के कार्यों के साथ है, जो असाधरण सार्वभौमिक महत्व के हैं।
यूनेस्को ने 1984 में इसे विश्व धरोहर स्थल घोषित किया है।
महाबलीपुरम स्मारक समूह अपनी वास्तुशिल्पीय नवाचार, ऐतिहासिक महत्व और सांस्कृतिक प्रभाव के लिए एक अनूठा स्थल है। यहाँ के स्मारक स्थल भारतीय स्थापत्य कला और मूर्तिकला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। यह न केवल भारत की समृद्ध विरासत को दर्शाता है, बल्कि वैश्विक स्तर पर वास्तुकला और कला के विकास में योगदान देता है।

महान जीवित चोल मंदिर
महान चोल मंदिर, जिसे ग्रेट लिविंग चोल टेम्पल्स के नाम से भी जाना जाता है।
महान जीवित चोल मंदिर तमिलनाडु में चोल राजवंश युग के तीन प्राचीन हिंदू मंदिरों का समूह है। यूनेस्को के विश्व धरोहर की सूची अनुसार इनमें तीन मंदिर शामिल हैं –
- राजराज प्रथम द्वारा निर्मित तंजावुर का बृहदीश्वर मंदिर
- राजेन्द्र चोल द्वितीय द्वारा निर्मित गंगईकोंडा चोलपुरम का बृहदीश्वर मंदिर
- राजराज द्वितीय द्वारा निर्मित दारासुरम का ऐरावतेश्वर मंदिर
महान चोल मंदिरों में प्राचीन अगमिक ग्रंथों पर आधारित दैनिक, साप्ताहिक और वार्षिक अनुष्ठान आज भी जारी हैं, जो इन्हें जीवित मंदिर बनाते हैं।
ये मंदिर 11वीं और 12वीं सदी में चोल राजाओं द्वारा बनाए गए थे और द्रविड़ शैली की वास्तुकला और और चोल साम्राज्य की सांस्कृतिक, धार्मिक और कलात्मक उपलब्धियों को दर्शाते हैं।
तंजावुर का बृहदीश्वर मंदिर
तंजावुर चेन्नई से लगभग 345 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
तंजावुर का बृहदीश्वर मंदिर राजा राजा चोल प्रथम द्वारा 1003-1010 ई. में निर्मित। यह भगवान शिव को समर्पित मंदिर है।
तंजावुर का मंदिर – यह राजा राजा चोल प्रथम की सैन्य विजयों और धार्मिक भक्ति का प्रतीक है।
विमानम की ऊंचाई लगभग 208 फीट है, जो दक्षिण भारत में सबसे ऊँचे मंदिर टावरों में से एक है।
मंदिर का क्षेत्रफल 44.7 एकड़ है, जिसमें एक उठी हुई मंच पर मुख्य मंदिर बनाया गया है।
ग्रेनाइट से निर्मित। विमान के शीर्ष पर 80 टन का एकल पत्थर का कलश। यहाँ का शिवलिंग भारत के सबसे बड़े शिवलिंगों में से एक है।
नंदी की 16 फीट लंबी और 13 फीट ऊंची मूर्ति, जो एक ही पत्थर से तराशी गई है। नदी का वजन लगभग 25 टन है, नंदी की प्रतिमा एक अखंड प्रतिमा है और भारत की सबसे बड़ी प्रतिमाओं में से एक है।
दीवारों पर 81 नृत्य मुद्राओं (करण) की नक्काशी, जो भारतीय शास्त्रीय नृत्य की परंपरा को दर्शाती हैं।
तंजावुर का बृहदीश्वर मंदिर का विमान इतना ऊंचा है कि इसकी छाया कभी जमीन पर नहीं पड़ती।
गंगईकोंडा चोलपुरम का बृहदीश्वर मंदिर
गंगईकोंडा चोलपुरम अरियालुर जिला में चेन्नई से लगभग 280 किलोमीटर और तंजावुर से लगभग 70 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
गंगईकोंडा चोलपुरम का बृहदीश्वर मंदिर राजेंद्र चोल प्रथम द्वारा 1035 ई. में पूरा किया गया। यह शिव को समपिर्त है।
गंगईकोंडा चोलपुरम का मंदिर यह राजेंद्र चोल प्रथम की बंगाल के पाल वंश पर विजय और गंगा तक की यात्रा का स्मारक है। इसका नाम गंगा को जीतने वाले चोल का शहर के रूप में रखा गया।
विमानम की ऊंचाई लगभग 180 फीट है।
मंदिर की वास्तुकला तंजावुर की बृहदीश्वर मंदिर से मिलती-जुलती है, लेकिन इसमें चालुक्य कला का प्रभाव भी दिखाई देता, जैसे सूर्य पूजा और नवग्रहों की मूर्तियां।
गर्भगृह की दीवारों के चारों ओर लगभग 50 मूर्तिकला हैं जिनमें नटराज, सरस्वती, अर्धनारीश्वर, हरिहर, विष्णु का वराह अवतार और शिव प्रमुख है।
मंदिर का डिज़ाइन तंजावुर के मंदिर से प्रेरित है, लेकिन इसमें स्थानीय नवाचार भी शामिल हैं।
दारासुरम का ऐरावतेश्वर मंदिर
गंगईकोंडा चोलपुरम चेन्नई से लगभग 310 किलोमीटर और तंजावुर से लगभग 40 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
दारासुरम का ऐरावतेश्वर मंदिर राजा राजा चोल द्वितीय द्वारा 12वीं शताब्दी में निर्मित।
यह भगवान शिव को समर्पित है। इंद्र के सफेद हाथी ऐरावत के नाम पर बना यह मंदिर चोल साम्राज्य की भव्य मंदिर वास्तुकला का प्रमाण है।
इसका परिसर 107 मीटर लंबा और 70 मीटर चौड़ा है और मुख्य मंदिर का आधार 23 मीटर लंबा और 63 मीटर चौड़ा है। गर्भगृह 12 मीटर की चौकोर साइड के साथ विमानम की ऊंचाई लगभग 24 मीटर है।
विशेषताएं – रथ के आकार का राजगंभीरन तिरुमंडपम।
63 नायनमार (शैव संत) की लघु नक्काशियां।
देवी के लिए अलग मंदिर, जो चोल काल में एक महत्वपूर्ण विकास है।
ये मंदिर द्रविड़ शैली की वास्तुकला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं, जिसमें पिरामिडीय टावर (विमान) और जटिल नक्काशियां शामिल हैं।
तंजावुर का मंदिर, जिसे बिग टेम्पल या पेरिया कोविल भी कहा जाता है, ग्रेनाइट से बना है और इसके विमान में 13 तल हैं। गंगईकोंडा चोलपुरम का मंदिर अपने 53 मीटर ऊंचे विमान और सुंदर मूर्तिकला के लिए जाना जाता है, जबकि दारासुरम का मंदिर अपनी जटिल नक्काशियों और रथ के समान संरचना के लिए प्रसिद्ध है।
तंजावुर का मंदिर विशेष रूप से अपनी 29 फीट ऊंची शिवलिंग और 80 टन वजनी शीर्ष पत्थर (कुंभम) के लिए प्रसिद्ध है, जो एक ही पत्थर से बना है।
दक्षिण भारत के ये तीन महान चोल मंदिर द्रविड़ प्रकार के स्थापत्य शैली, चोल साम्राज्य और तमिल सभ्यता की चोल मंदिर वास्तुकला के विकास का उत्कृष्ट उदाहरण है।
यह मंदिर वास्तुशिल्पीय उत्कृष्टता के प्रतीक हैं, बल्कि चोल वंश की सांस्कृतिक और धार्मिक विरासत का जीवंत प्रमाण भी हैं। ये मंदिर आज भी पूजा और तीर्थयात्रा के लिए महत्वपूर्ण हैं और भारत की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर का एक अनिवार्य हिस्सा हैं।
महान जीवित चोल मंदिर भारत का 17वां विश्व धरोहर स्थल है जिसे यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल के रूप में निम्नलिखित मानदंडों के तहत मान्यता दी गई है –
मानदंड (i) दक्षिण भारत के 03 चोल मंदिर, द्रविड़ प्रकार के मंदिर की स्थापत्य अवधारण एक उत्कृष्ट रचनात्मक उपलब्धि का प्रतिनिधित्व करते हैं।
मानदंड (ii) तंजावुर स्थित बृहदीश्वर मंदिर चोल मंदिरों का पहला उदाहरण जो बाद के अन्य दो संपत्तियों के विकास का गवाह है।
मानदंड (iii) तीनों चोल मंदिर, दक्षिण भारत में चोल साम्राज्य और तमिल सभ्यता की वास्तुकला के विकास के लिए एक असाधारण और उत्कृष्ट साक्ष्य हैं।
मानदंड (iv) तीनों चोल मंदिर वास्तुकला और चोल विचारधारा के प्रतिनिधित्व का एक अनमोल खजाना है।
महान जीवित चोल मंदिर का प्रथम नामांकन वर्ष 1987 जिसमें सीमाओं में संशोधन (विस्तार) वर्ष 2004 में किया गया है।
महान जीवित चोल मंदिर साइट के संपत्ति का क्षेत्र 21.74 हेक्टेयर है, जिसमें बफर जोन 16.715 हेक्टेयर है।
यूनेस्को के विश्व धरोहर की सूची में महान जीवित चोल मंदिर को 1987 में तंजावुर के बृहदीश्वर मंदिर के साथ सूचीबद्ध किया गया था, और 2004 में गंगईकोंडा चोलपुरम का बृहदीश्वर मंदिर और दारासुरम का ऐरावतेश्वर मंदिर को जोड़ा गया।
महान जीवित चोल मंदिर न केवल वास्तुशिल्प के चमत्कार हैं, बल्कि वे चोल साम्राज्य की सांस्कृतिक और धार्मिक विरासत को जीवित रखते हैं।