उत्तर वैदिक काल 1000 से 600 ई.पू. सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक एवं राजनीतिक जीवन
उत्तर वैदिक काल 1000 से 600 ई.पू. तक के काल को कहा जाता है। उत्तर ऋग्वैदिक काल में अन्य तीन वेदों (यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद) की रचना हुई है। शतपथ ब्रम्हाण के अनुसार आर्यों के पूर्वी क्षेत्र में विस्तार हुआ तथा गंडक नदी (सदानीरा) के वनों को जलाकर निवास योग्य बनाया गया
उत्तर वैदिक काल – राजनीतिक जीवन
उत्तर वैदिक काल के राजनीतिक संगठन की मुख्य विशेषता बड़े राज्यों तथा जनपदों की स्थापना।
उत्तर वैदिक काल में राजतंत्र था। राजा का राज्याभिषेक के समय राजसूय यज्ञ का अनुष्ठान किया जाता था।
ग्रामीण सभ्यता।
16 जनपद थे।
राजा की सहायता के लिए सभा एवं समिति नामक परिषद होती थी।
राजा के पदाधिकारियों को रत्नी कहा जाता है।
महिषी – राजा की मुख्य रानी
संग्रहीता – कोषाध्यक्ष
भागदुध – कर संग्रहकर्ता
गोविकर्तन – पशुओं एवं चारागाहों की देखभाल करने वाला
उत्तर वैदिक काल – सामजिक जीवन
इस काल में वर्ण व्यवस्था जटिल हो गई थी। वर्ण व्यवस्था का आधार कर्म न होकर जाति हो चुका था। वैश्यों को अनस्य बलिकृत – उत्पादन कार्य करते थे कर देते थे तथा शूद्र को अनस्य प्रेष्य – दूसरों की सेवा करने वाला कहा गया।
परिवार पितृसत्तात्मक था। स्त्रियों की दशा में गिरावट तथा सभा, समितियों एवं यज्ञों इत्यादि में भाग लेने से वंचित कर दिया गया। अपवाद स्वरूप गार्गी व मैत्रयी विदुषी थी।
संयुक्त परिवार की प्रथा विद्यमान थी।
उत्तर वैदिक काल में गोत्र व्यवस्था स्थापित हुई। समगोत्रीय विवाह वर्जित था।
बाल विवाह का प्रचलन नहीं था। 16-17 वर्ष की आयु में कन्या का विवाह किया जाता था।
विवाह
- ब्रह्म विवाह – माता पिता द्वारा उपयुक्त वर खोज कर उससे अपनी पुत्री का विवाह करना।
- देव विवाह – यज्ञ कर्म करने वाले के साथ कन्या का विवाह
- आर्श विवाह – कन्या के पिता को वर एक जोड़ी बैल प्रदान करता था।
- प्रजापत्य विवाह – बिना किसी दान-दहेज के योग्य वर से अपनी कन्या का विवाह करना।
- असुर विवाह – कन्या के पिता द्वारा वर से धन लेकर अपनी कन्या का विवाह करना।
- गंधर्व विवाह – माता पिता के इच्छा के विरूद्ध प्रेम संबंधों पर आधारित विवाह
- राक्षस विवाह – शक्ति के बल पर कन्या का अपहरण कर विवाह
- पैशाच विवाह – सोेती हुई या पागल कन्या के साथ दुराचार कर विवाह
प्रशांसनीय विवाह – ब्रह्म विवाह, देव विवाह, आर्श विवाह, प्रजापत्य विवाह
निंदनीय विवाह – असुर, गंधर्व, राक्षस, पैशाच विवाह
उत्तर वैदिक काल में आश्रम व्यवस्था की स्थापना हुई। जीवन को 100 वर्षों का मानते हुए आयु का विभाजन किया गया।
चार आश्रम
- ब्रह्मचर्य आश्रम – 25 वर्ष की आयु तक – शिक्षा प्राप्त करना
- गृहस्थ आश्रम – 25 से 50 वर्ष तक – सामजिक विकास हेतु धर्म, अर्थ काम की प्राप्ति (गृहस्थ आश्रम को श्रेष्ठ माना गया है इसमें मनुष्य तीन ऋण, पंच महायज्ञ संपन्न करता है)
- वानप्रस्थ आश्रम – 50 से 75 वर्ष तक – आध्यात्मिक उत्कर्ष
- सन्यास आश्रम – 75 से 100 वर्ष तक – मोझ प्राप्त करना
तीन ऋण
- देव ऋण – देव की कृपा से स्वच्छ वायु, जल, प्रकाश और ऊर्जा मिलती है। इस कारण मनुष्य देवों के प्रति ऋणी होते है जिसके लिए यज्ञ के माध्यम से देव ऋण से मुक्ति पाई जाती है।
- ऋषि ऋण – जीवन पथ को आलोकित करने वाले गुरूओं के प्रति ऋणी होना चाहिए। उनके द्वारा प्रदत्त ज्ञान को प्रयोग में लाना तथा उस ज्ञान से दूसरों को भी लाभान्वित करना ऋषि ऋण से मुक्ति पाई जाती है।
- पितृ ऋण – मनुष्य को माता पिता और पूर्वजों के प्रति ऋणी माना जाता है। जिसके लिए श्राद्ध द्वारा पूर्वजों को धर्मानुसार सन्तानोत्पति द्वारा सृष्टि प्रक्रिया में सहयोग कर पितृ ऋण से मुक्ति पाई जाती है।
पंच महायज्ञ
- देव यज्ञ – देवताओं को प्रसन्न करन के लिए वेदी में अग्नि जलाकर हवन किया जाता है इसलिए इसे अग्निहोत्र यज्ञ भी कहा जाता है। इससे देव ऋण से मुक्ति प्राप्त होता है।
- ब्रह्म यज्ञ – प्राचीन ऋषि के प्रति कृतज्ञता के लिए। इसे ऋषि यज्ञ भी कहा जाता है। इस यज्ञ संपादन के द्वारा मनुष्य ऋषि ऋण से भी मुक्ति प्राप्त करना है।
- पितृ यज्ञ – पितरों के तर्पण, पिंडदान, जलांजलि अर्पित करना। जिसे पितर तर्पण करने वालों को लंबी आयु, धन, विद्या, मोक्ष, सुख प्राप्त होता है। पुराणों में इसे श्राद्ध कर्म कहा गया है।
- भूत यज्ञ – विभिन्न प्राणियों की संतुष्टि के लिए किया जाना वाला यज्ञ है। प्रतिदिन घर में भोजन पकाते समय अग्नि को भोजन का प्रथत भाग अर्पित करना भूतयज्ञ कहा गया है। इसे बलिवैश्वदेव भी कहा जाता है।
- नृयज्ञ – घर में आए हुए अतिथि का सम्मान देना एवं उन्हें जल, अन्न आदि से संतुष्ट करना नृयज्ञ कहलाता है। ऐसी मान्यता है की अतिथि में ही सभी देवता करते हैं।
चार पुरूषार्थ
- धर्म – मनुष्य को अपने कत्र्तव्य मार्ग पर बढ़ने और दायित्वों का निर्वाह करने की प्रेरणा देता है। धर्म ही मानव तथा समाज के अस्तित्व को अक्षुण्ण रखता है। चारों आश्रम में मनुष्य को धर्म के अनुरूप कार्य करने को कहा गया है।
- अर्थ – धनार्जन करना अर्थात् भौतिक सुखों की सभी आवश्यकताओं और साधनों का द्योतक माना गया है।
- काम – भारतीय धर्म दर्शन में काम का मुख्य उद्देश्य विवाह एवं संतान्नोत्पति द्वारा वंश वृद्धि करना माना गया है।
- मोक्ष – जन्म मृत्यु के चक्र से मुक्ति प्राप्त करना।
सोलह संस्कार – 16 संस्कार
- गर्भाधान – मां के गर्भ में जीव की स्थापना।
- पुंसवन – गर्भ ठहर जाने पर माता के आहार, आचार व्यवहार का ध्यान रखना।
- सीमान्तोन्नयन – गर्भ के छठे या आठवे मास में यह संस्कार किया जाता है गर्भ धारण किये स्त्री के सुख सांत्वना एवं विशेष सावधानी के साथ व्यवहार करना।
- जातकर्म – शिशु के जन्म के जन्म अनुष्ठान करना बालक को स्तनपान व शहद तथा घी चटाया जाना।
- नामकरण – शिशु का नामकरण।
- निष्क्रमण – घर से पहली बार जब बच्चा चार मास का हो जाता है बाहर निकलने पर।
- अन्नप्राशन – शिशु को पहली बार अन्न खिलाना।
- चूड़ाकरण – मुंडन संस्कार (पहली बार सिर मुड़ाना)
- कर्णवेधन – बालक का कर्ण छेदन कराना।
- विद्यारम्भ – शिशु को पहली बार अक्षर ज्ञान कराया जाना।
- उपनयन – बालक के गुरू आश्रम में प्रवेश के समय यज्ञोपवती या जनेऊ धारण करना।
- वेदारम्भ – पहली बार वेद का अध्ययन करना।
- केशांत – बालक पहली बार दाढ़ी एवं मूंछ बनवाता है।
- समावर्तन – शिक्षा पूर्ण होने के उपरांत घर लौटना
- विवाह – गृहस्थ जीवन प्रारंभ करने के लिए।
- अंत्योष्टि – मृत्यु के बाद दाह संस्कार
उत्तर वैदिक काल – आर्थिक जीवन
उत्तर वैदिक काल में महत्वपूर्ण पशु गाय थी। हाथी का पालूत बनाया गया था। हाथी की देखभाल करने वाले का हस्तिप (महावत) कहा जाता था।
इस काल में धातु का विकास हुआ था। श्याम अयस (लोहा) लोहित अयस (ताँबा) हिरण्य (सोना) सीस (शीश) त्रपु (रांगा)
व्यापारी को वणिक कहा जाता था।
व्यापारी के अध्यक्ष को श्रेष्ठि कहा जाता था। ब्याज देने वाले कुसीदी कहा जाता था।
चावल और गेहूं प्रमुख फसल थी।
उत्तर वैदिक काल में हल को सिरा व हल रेखा को सीता कहा जाता था।
उत्तर वैदिक काल – धार्मिक जीवन
प्रजापति इस काल के सर्वश्रेष्ठ देवता बन गये। इन्हें देवाताओं का पिता कहा गया।
इस काल में त्रिदेव का उल्लेख मिलता है।
उत्तर वैदिक काल में देवाताओं को प्रसन्न करने का मुख्य माध्यम स्तुति के स्थान पर धर्म का प्रमुख आधार यज्ञ बन गया। यज्ञ आदि कर्मकांडों का महत्व इस युग में बढ़ गया था।
यज्ञ
- अग्निहोत्र यज्ञ – सुबह शाम अग्नि की उपासना के साथ
- दर्श यज्ञ – अमावस्या के दिन किया जाने वाला यज्ञ
- पूर्णमास्य यज्ञ – पूर्णमासी के दिन किया जाने वाला यज्ञ
- चार्तुमास्य यज्ञ – चार महीने में ऋतु परिवर्तन के साथ
- सौत्रामणि यज्ञ – इसमें सूरा की आहुति दी जाती थी।
- अग्निष्टोम यज्ञ – पांच दिनों तक चलने वाला यज्ञ इसमें प्रथम और पांचवे दिन बकरे की बलि दी जाती थी
- पंचपशु यज्ञ – इसमें भेड़, बकरा, बैल, घोड़ज्ञ एवं एक मनुष्य इन पांच पशुओं की बलि दी जाती थी।
- पुरूषमेध यज्ञ – इसमें पुरूषों की बलि दी जाती थी
- अश्वमेध यज्ञ – साम्राज्य विस्तार के लिए राजा के चक्रवर्ती होने के लिए किया जाने वाला यज्ञ।
- वाजपेय यज्ञ – 17 दिनों तक चलने वाला यज्ञ था और इसे करने वालों को सम्राट की उपाधि मिलती थी। इसमें रथों की दौड़ था जिसमें सम्राट का रथ आगे रहता था।
ऋग्वैदिक काल (पूर्व वैदिक) और उत्तर वैदिक काल में अंतर – तुलनात्मक विवरण
क्रमांक | विवरण | ऋग्वैदिक काल | उत्तर वैदिक काल |
---|---|---|---|
1 | समय | 1500-1000 ई.पू. | 1000-600 ई.पू. |
2 | सभ्यता | ग्रामीण | ग्रामीण |
3 | वेदों एवं ग्रंथों की रचना | ऋग्वेद | यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद |
4 | भौगोलिक विस्तार | अफगानिस्तान, पंजाब, सिंध | शतपथ ब्राह्मण, के अनुसार आर्यों का पूर्वी क्षेत्र में विस्तार हुआ। सदानीरा के वनों को जलाकर निवास योग्य बनाया गया। गंगा नदी घाटी मुख्य क्षेत्र थे। |
5 | शासन | राजतंत्र | राजतंत्र |
6 | पर्वत का उल्लेख | हिमनंत (हिमालय) मूजवंत (हिन्दुकुश) | कौंच्च, त्रिककुद, मैनाक |
7 | समाज | पितृसत्तात्मक | पितृसत्तात्मक |
8 | वर्ण व्यवस्था | काल के अंतिम समय में शुरूआत | वर्ण व्यवस्था प्रारंभ मुख्यतः चार वर्ण |
9 | गोत्र व्यवस्था | प्रचलित नहीं थी | गोत्र व्यवस्था प्रारंभ समगोत्रीय विवाह वर्जित |
10 | आश्रम व्यवस्था | कोई प्रमाण नहीं | चार आश्रम में होने का प्रमाण |
11 | स्त्रियों की दशा | स्त्रियों की स्थिति समाज में सम्मानीय थी। महिलाएं अपने पति के साथ यज्ञ कार्य में भाग लेती थी। | स्त्रियों की दशा में गिरावट प्रारंभ, स्त्रियों को सभा, समितियों एवं यज्ञों में भाग लेने से वंचित कर दिया गया। |
12 | आर्थिक जीवन | कृषि, पशुपालन | कृषि, विभिन्न उद्योग |
13 | प्रमुख फसल | यव (जौ) | गेहूँ, धान |
14 | लोहा | परिचित नहीं थे | उत्तर वैदिक काल में मनुष्य को लोहे का ज्ञान हुआ। |
15 | देवता | इन्द्र (250 बार वर्णन), अग्नि (200 बार वर्णन) वरूण, सोम | प्रजापति ( ब्रह्मा) शिव, विष्ण |
16 | यज्ञ | बहुत महत्वपूर्ण नहीं | धर्म का प्रमुख आधार यज्ञ बन गया। यज्ञ आदि कर्मकांडों का महत्व इस युग में बढ़ गया था। |
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